________________
१९
प्राकृत व्याकरण
आगम साहित्य हो, चाहे संस्कृत - प्राकृतरूपक साहित्य हो, चाहे प्राकृत काव्य साहित्य हो उन सब का पुनः सम्पादन किया जाना चाहिए । इसमें भी गाथासप्तशती, सेतुबन्धम् का खास करके और जो भी जहाँ से भी हस्तप्रतें मिलती हैं उनमें जो भी वर्ण-व्यवस्था जहाँ पर भी प्राचीन लगती हो उसे ही अपनायी जानी चाहिए और परवर्तीकाल की प्रवृत्तिको एकरूपता देने के बदले प्राचीन प्रवृत्ति को एकरूपता दी जानी चाहिए । यह कार्य अवश्य ही भारी और जटिल है और बहुत अधिक श्रमशील है परंतु साहस और धैर्य के साथ करने की आवश्यकता है । आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण का इस प्रकार का समीक्षात्मक और आलोचनात्मक अध्ययन करने पर जो सार निकला है उसके सहारे क्या ऐसा कहा जा सकता है कि उन्होंने अन्धानुकरण किया है और उनका दिमाग ठिकाने नहीं था जैसा कि एक पाश्चात्य विद्वान् ने कहा है ।
यदि कहना हो तो यह कहा जा सकता है कि वररुचि का व्याकरण भारत भर की प्राकृत का व्याकरण नहीं है परंतु उनके ही क्षेत्र की प्राकृत की एक बोली का व्याकरण है जबकि हेमचन्द्र का व्याकरण भारत के विशाल प्रदेश की विशाल प्राकृत भाषा का व्याकरण है ।
इसी प्रसंग में एक और बात कहना चाहूँगा वह यह कि सभी पाश्चात्य विद्वानों को एक समान हमारे गुरु या साहित्योद्धारक मानने की परंपरा उचित नहीं है । सूक्ष्म अध्ययन और परीक्षण हमारे अध्ययन का मुद्दा होना चाहिए न कि मात्र अंधभक्ति या भावनात्मक सम्मान की दृष्टि |
Jain Education International
अध्यक्ष
प्राकृत-पालि विभाग भाषा साहित्य भवन
गुजरात युनिवर्सिटी,
अहमदाबाद - ३८०००८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org