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प्राकृत व्याकरण
नहीं है (लोपोऽरण्ये I.4) परन्तु वैकल्पिक लोप कहा गया है। हेमचन्द्र का सूत्र है
‘वा अलावु अरण्ये लुक्' 8. 1. 66 उदाहरणों में रण्ण और अरण्ण दोनों शब्द दिये गये हैं। अरण्ण शब्द के प्रयोग सप्तशती, गौडवहो, शाकुन्तलम् इत्यादि में भी मिलते हैं (पिशल -142)। इन उदाहरणों से हेमचन्द्र के नियम की पुष्टि होती है। अकार के इकार में होने वाले परिवर्तन को समझाते समय वररुचि ने मात्र एक ही सूत्र (I.3) दिया है जबकि आ० हेमचन्द्र ने पाँच सूत्र (I.46-50) दिये हैं । वररुचि द्वारा इस सूत्र में दिये गये सभी शब्द हेमचन्द्र ने दिये हैं परन्तु उन्हें अलग-अलग सूत्रों में समझाये हैं अतः कुछ विद्वानों द्वारा ऐसा कहना कि हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती की सामग्री चुराई है सो उचित ही लगता है। परन्तु यह आक्षेप ऊपर-ऊपर से ही योग्य लगता है। तथ्य की गहराई में प्रवेश किया जाय तो यह आक्षेप गलत सिद्ध होता है और वररुचि का व्याकरण हेमचन्द्र के व्याकरण के सामने प्रारम्भिक प्रयत्न करने के समान प्रतीत होता है।
कहना पड़ेगा कि अवश्य ही हेमचन्द्र ने वररुचि की सामग्री का उपयोग किया है परन्तु उन्होंने प्राकृत-प्रकाश में दिये गये शब्दों के अलावा दस शब्द(व्यलीक, कृपण, उत्तम, मरिच, दत्त, ललाट, मध्यम, कलम, सप्तपर्ण और मयट् प्रत्यय) और जोड़े हैं। इतना ही नहीं परन्तु उनके हरेक सत्र में कुछ न कुछ विशेषता है। सत्र 8. 1. 46 में आदि अ का अवैकल्पिक इ और सत्र 8. 1. 47 में आदि अ का विकल्प से इ होना समझाया है। सूत्र 8.1.48 में शब्द में आने वाले द्वितीय अ का इ (कतम = कइम, मध्यम = मज्झिम) और सूत्र 8.1.49 में द्वितीय अ का वैकल्पिक इ होना समझाया गया (सप्तपर्ण-छत्तिवण्ण, छत्तवण्ण) है। अन्त में सूत्र नं० 8.1.50 एक प्रत्यय के बारे में है जिसके अनुसार मयट् प्रत्यय का विकल्प से मअ और मइअ (विसमइअ, विसमअ) हो जाता है । इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र के हरेक सूत्र में कुछ न कुछ नवीनता है। हेमचन्द्र द्वारा अलग से दिये गये वैकल्पिक परिवर्तन वाले शब्द प्राचीन जैनेतर साहित्य में भी मिलते हैं-छत्तवण्ण (शाकुन्तलम्), पक्व = पक्क और अङ्गार = अंगाल के लिए आगे देखिए जिनके लिए पिक्क और इंगाल शब्द भी मिलते हैं।
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