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प्रथम स्तवक]
भाषानुवादसहिता mory
सिद्धान्तलेशसंग्रहवर्णितनानामतावधानाय । हृद्यैरहं कतिपयैः पद्यैः संदर्भयामि कृतिमेताम् ॥ ४ ॥
येनाऽपाजितः कटाक्षितः। प्रबोधः जीवब्रह्मैक्यसाक्षात्कारः । भवदुःस्वप्नावसानकरः भवः संसारः मिथ्यापरिकल्पितः स एव दुःस्वप्नः सकलानर्थभाजनत्वात् तस्याऽवसानकरः सवासनोच्छेदकरः, ज्ञानेनाऽज्ञानोच्छेदे तत्कार्यसंसारोच्छेदस्याऽवश्यंभावित्वात् । एवं च सविलासाज्ञानोच्छेदक्षमसाक्षात्कारः यत्कटाक्षकलभ्यः तं अखिलतन्त्रजीवातुम् अखिलानि यानि तन्त्राणि दर्शनानि तेषां जीवातुं उज्जीवकम् , सर्वेषां तन्त्राणां परमतात्पर्येणाऽद्वितीयब्रह्मावसायित्वस्य तत्र तत्र स्वकृतग्रन्थेषु स्थापितत्वात् । एतादृशं परमशिवेन्द्रं श्रीगुरुम् अहं वन्दे नमस्करोमीत्यर्थः ॥ ३ ॥
चिकीर्षितं प्रतिजानीते-सिद्धान्तेति । हृयैः बह्वर्थसूचकसरलपदगुम्भितत्वेन मनोहरैः । एतां चिकीर्षितत्वेन बुद्धिस्थां कृति सिद्धान्तकल्पवल्लयाख्यामित्यर्थः ॥ ४ ॥ गुरुसे उपदिष्ट और अनुपदिष्ट सम्पूर्ण अर्थोंका बोध होना गुरुभक्तिके अधीन है, इस आशयसे अपने गुरुको नमस्कार करते हैं. यदपाङ्गिता' इत्यादिसे।
जिस गुरु द्वारा अपने कृपाकटाक्षसे वितीर्ण प्रबोध (जीव और ब्रह्मके ऐक्यका साक्षात्कार) संसाररूप दुःस्वप्नका अन्त कर देता है। अर्थात जैसे किसी पुरुषको-मेरे पीछे पागल कुत्ता लगा है ऐसा स्वप्न आनेपर भय और उद्वेगसे जब वह चिल्लाता है तब पास सोये हुए किसी दयालु पुरुष द्वारा उसके जगाये जानेपर दुःस्वप्नजन्य सब अनर्थ निवृत्त हो जाते हैं, वैसे ही सकल अनर्थों से भरा हुआ यह अज्ञानसे कल्पित संसार ही दुःस्वमरूप है, उसका गुरुकृत प्रबोधसे अन्त अर्थात् वासनासहित उच्छेद हो जाता है । ज्ञानसे अज्ञानका उच्छेद हो जानेपर अज्ञान कार्यभूत संसारकी निवृत्ति अवश्य हो जायगी एवं सविलास अज्ञानका उच्छेद करनेमें समर्थ आत्मसाक्षात्कार जिनके कृपाकटाक्षमात्रसे मिल सकता है एवं जो अखिल तन्त्रजीवातु-सकल शास्त्रोंका उज्जीवन करनेवाले हैं-अर्थात् सब तंत्रोंका परम तात्पर्य अद्वितीय ब्रह्ममें पर्यवसित है, ऐसा जिन्होंने अपने ग्रन्थों में निर्णय किया है, ऐसे परमशिवेन्द्र श्रीगुरुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥३॥
जिस ग्रन्थकी रचना करना अभीष्ट है, उसकी ग्रन्थकार प्रतिज्ञा करते हैं-महानुभाव श्रीमान् अप्पय्यदीक्षिताचार्य द्वारा रचित सिद्धान्तलेशसङ्ग्रह नामक प्रबन्धमें संकलित जो नाना प्रकारके मत-मतान्तर हैं, वे अल्प परिश्रमसे हृदयारूढ़ हों, इसलिए मैं हृदयंगम कई एक पद्योंसे इस बुद्धिस्थ ग्रन्थको बनाता हूँ॥४॥
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