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सिद्धान्तकल्पवल्ली [जीवेश्वरस्वरूपनिर्णयवाद
संक्षेपके त्वविद्या चित्प्रतिबिम्बो भवेदीशः । तत्कार्यान्तःकरणे चित्प्रतिबिम्बस्तु जीव इत्युक्तम् ॥ ३२ ॥ धीवासनोपरक्ताज्ञानं धीश्वेत्युपाधियुगे। प्रतिबिम्बौ जीवेशाविति भेदश्चित्रदीपोक्तः ॥ ३३ ॥ विवरणदर्शनमेतदविद्याप्रतिबिम्बलक्षणो जीवः । तद्विम्बभूत ईशस्तस्मादुभयोविभाग इति ॥ ३४ ॥
'कार्योपाघिरयं जीवः कारणोपाघिरीश्वरः' इति श्रुतिमाश्रित्य मतान्तरमाह-संक्षेपके विति । अविद्याचित्प्रतिबिम्बः अविद्यायां चित्प्रतिबिम्बः इत्यर्थः ॥ ३२॥
ब्रह्माश्रिते सकलप्राणिधीवासनोपरक्तेऽज्ञाने प्रतिबिम्बितचैतन्यमीश्वरः, स्थूलसूक्ष्मदेहद्वयाधिष्ठानकूटस्थकल्पितेऽन्तःकरणे प्रतिबिम्बितं चैतन्यं जीव इति तयोर्भेदं मतान्तरेण दर्शयति-धीवासनेति । उपाधियुगे उपाधिद्वये जीवेशाविति गुरक्रमेणाऽन्वयः ॥ ३३ ॥
जीवो नाऽन्तःकरणप्रतिबिम्बः, योगिनां कायव्यूहे 'प्रदीपवदावेशस्तथाहि
'कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः'-( कार्यरूप-अन्तःकरणरूपउपाधिवाला यह जीव है और कारणरूप-मूलाविद्यारूप-उपाधिवाला ईश्वर है) इस श्रुतिसे निरूपित मतान्तर दर्शाते हैं-'संक्षेपके' इत्यादिसे। ___ संक्षेपशारीरकमें अविद्या में चित्का जो प्रतिबिम्ब है, वह ईश्वर है और उसके कार्य अन्तःकरणमें जो चित्प्रतिबिम्ब है, वह जीव है, ऐसा कहा गया है ॥ ३२ ॥
सकल प्राणियोंकी बुद्धि-वासनाओंसे उपरक्त ब्रह्माश्रित अज्ञानमें जो प्रतिबिम्ब है, वह तो ईश्वर है और बुद्धिरूप उपाधिमें प्रतिबिम्बित चैतन्य जीव है, ऐसे व्युत्क्रमसे अन्वय करना चाहिये । यहाँ केवल बुद्धिके स्थानमें स्थूल तथा सूक्ष्मइन दोनों देहोंकी कल्पनाके अधिष्ठानभूत कूटस्थ चैतन्यमें कल्पित अन्तःकरणको समझना चाहिये, इस रीतिसे जीव और ईश्वरके भेदका चित्रदीपप्रकरणमें विद्यारण्यमुनिने निरूपण किया है ॥ ३३ ॥
इस विषयमें विवरणकारका मत कहते हैं-'विवरण.' इत्यादिसे ।
जीवको अन्तःकरण-प्रतिबिम्ब मानना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि जब योगी कायव्यूह (एक समयमें अनेक शरीर धारण) करता है, तब 'प्रदीपवदावेशस्तथाहि दर्शयति'
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