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सिद्धान्तकल्पवल्ली
दृष्टिसमकालसृष्टौ दृष्टः प्रागर्थमात्र विरहेण । स्याज्जाग्रदर्थबोधेऽप्यैन्द्रियकत्वोपलम्भनं भ्रान्तिः ॥ ३१ ॥
[ दृष्टिसृष्टिकल्पवाद
६. दृष्टिसृष्टिकल्पकवादः
इह दृष्टिसृष्टिवादे साविद्यस्य प्रपञ्चजातस्य । पूर्वाविद्यासचिवः कल्पक आत्मेति मेनिरे केचित् ॥ ३२ ॥
दृष्टिसृष्टिवादे दृष्टिसमकाला सृष्टिरिति पक्षे दृष्टेः पूर्वं घटे घटार्थमात्राभावेन तत्सन्निकर्षाभावात् स्वप्नत्रज्जाग्रद्वच्च जाग्रद्घटाद्यनुभवे चाक्षुषत्वानुभवो भ्रम इति केषांचिन्मतमाह — दृष्टीति ॥ ३१ ॥
नन्वस्मिन् दृष्टिसृष्टिवादे कृत्स्नस्य जगतः कल्पको निरुपाधिकः सोपाधिको वा आत्मा ? प्रथमे मुक्तस्याऽपि तत्कल्पकत्वापत्तिः । द्वितीये, उपाध्यसिद्धिरित्याशङ्क्य पूर्वपूर्वाविद्योपहित एवोत्तरोत्तरसा विद्यसर्वप्रपञ्चस्य कल्पक इति केषांचि - न्मतमाह — इहेति । अविद्याया अनादित्ववादस्तु स्वामाकाशादेरिवाऽनादित्वेनैव कल्पनादिति भावः ॥ ३२ ॥
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दोषसंस्कारके अनुरोधसे स्वप्न में जो चाक्षुषत्वानुभव होता है, वह भ्रम है, ऐसा फलित होता है ।। ३० ॥
इसी विषय में और भी मत दर्शाते हैं - ' दृष्टिसम० ' इत्यादिसे ।
- सृष्टिवाद में दृष्टिमकाल ( जब दृष्टि हो तभी ) सृष्टि मानो जाती है, इस पक्ष में दृष्टिसे पूर्व घटमें घटार्थमात्रका अभाव होनेसे घटका सन्निकर्ष ही नहीं होता; अतः स्वप्नके समान जाग्रत्में भी घटादिके अनुभव में चाक्षुषत्वका जो अनुभव होता है, वह भी भ्रम है; ऐसा दृष्टिसृष्टिवादियों का मत है ॥ ३१ ॥
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'इह दृष्टि ० ' इत्यादि । इस दृष्टिसृष्टिवाद में समग्र जगत्का कल्पक निरुपाधिक आत्माको मानते हो ? अथवा सोपाधिक आत्माको ? यदि निरुपाधिकको कल्पक मानोगे, तो मुक्त जीवों में भो कल्पकत्वकी आपत्ति होगी । यदि सोपाधिकको कल्पक मानोगे; तो उपाधिकी असिद्धि होगी, ऐसी आशंका करके समाधान करते हैं कि पूर्व - पूर्व अविद्यासे उपहित आत्मा ही उत्तरोत्तर साविय होकर सब प्रपञ्चका कल्पक होता है, ऐसा कई एकका मत है । अविद्याका अनादित्ववाद तो स्वानाकाकी नाई अनादित्व से ही माना जाता है ॥ ३२ ॥
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