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द्वितीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
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भोक्तुमनःसांनिध्यादात्मनि भोक्तृत्वमन्यदध्यस्तम् । तदुपाधिभेदतस्तब्यवस्थितिः साधुरित्यन्ये ।। ४७ ॥ इतरे त्वेकस्मिन्नपि शुद्धे भेदप्रकल्पनाऽस्तीति । आश्रयभेदादेव प्रकृते सुवचा व्यवस्थेति ॥ ४८ ॥
wwwwwn...'आत्मेन्द्रियमनोयुकं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः' इत्यन्तःकरणादिविशिष्टस्य भोक्तृत्वादिश्रवणादन्तःकरण मेदेन तद्विशिष्टभेदादिव्यवस्थेति मतान्तरमाह–अन्तःकरणेत्या. दिना । न चैवं विशिष्टस्य बन्धः शुद्धस्य मोक्ष इति वैयधिकरण्यम् , विशिष्टगतस्य बन्धस्य विशेष्ये ऽनन्वयाभावाद्विशिष्टस्याऽनतिरेकादिति भावः ॥ ४६॥
जपाकुसुमोपाधिसांनिध्यात् स्फटिके लौहित्यान्तरवत् भोक्त्रन्तःकरणोपाधिसांनिध्यात् शुद्धेऽध्यात्मनि भोक्तृत्वान्तरमध्यस्तमस्ति । तस्यैकत्वेऽपि तदुपाधिभेदात् सुखादिव्यवस्थोपपन्नति मतान्तरमाह-भोक्तमन इति । न च अन्यभेदादन्यत्र विरुद्धधर्मव्यवस्था न युज्यत इति वाच्यम् , मूलाग्ररूपोपाधिमात्रेण वृक्षे संयोगतदभावदर्शनादिति भावः ॥ ४७॥
आश्रयभेदादेव विरुद्धधर्मव्यवस्थेति नियमाभ्युपगमेऽप्येकस्मिन्नेव निष्कृअपर-मतवाले कहते हैं कि 'आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तत्याहुर्मनीषिणः' (इन्द्रिय और मनसे युक्त आत्माको मनीषी पुरुष भोक्ता कहते हैं) इस श्रुतिमें अन्तःकरणादिसे विशिष्ट चैतन्यको भोक्ता बतलाया है, इससे अन्तःकरण आदिके भेदसे तद्विशिष्टके भेद आदिकी व्यवस्था हो सकेगी। यदि इस मतमें विशिष्टका बन्ध और शुद्धका मोक्ष माननेसे वैयधिकरण्य होगा, ऐसी शङ्का हो, तो इसका समाधान यह है कि विशिष्टगत बन्धका विशेष्यमें भी अन्वय होगा, क्योंकि विशिष्ट शुद्धसे अतिरिक्त नहीं है, इससे ऊपरकी शङ्काका अवकाश नहीं है ॥ ४६ ।।
सुखादिकी व्यवस्थाका उपपादन करने के लिए मतान्तर कहते हैं-'भोक्तमनः' इत्यादिसे ।
जपापुष्पके सान्निध्यसे स्फटिकमें जैसे अन्यकी रक्तता उत्पन्न होती है, वैसे ही भोक्ताकी अन्तःकरणरूप उपाधिके सान्निध्यसे शुद्ध आत्मामें भी दूसरेका भोक्तृत्व अध्यस्त होता है। आत्माका एकत्व होनेपर भी उपाधिका भेद होनेसे सुखादिकी व्यवस्था उपपन्न हो सकती है। यदि यह कहो कि अन्य-भेदसे अन्यत्र विरुद्ध धर्मकी व्यवस्था नहीं बन सकती, तो ऐसा भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि जैसे मूल और अन दो उपाधियोंके भेदसे वृक्षमें संयोग और उसका अभाव देखने में आता है, वैसे ही प्रकृतमें भी हो सकता है ॥ ४७ ।।
'इतरे तु' इत्यादि । अन्य-मतवाले तो यह कहते हैं कि आश्रयके भेदसे ही
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