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तृतीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
तप्तायःपतितयोन्यायमिहोदाहरन्त्यन्ये । दग्धतृणकूटदहनोदाहरणं केचिदत्राऽऽहुः ॥ २६ ॥ वृत्त्यारूढः साक्षी शमयेत्सविलासमज्ञानम् । आरुह्य सूर्यकान्तं दहति तृणं रविकरो यथेत्येके ॥ २७ ॥
rrn.mmmrary अनिवृत्तौ तु तयैव वृत्या द्वैतापत्तिरित्यर्धनाऽऽशङ्कय, तत्र मतत्रयोक्तदृष्टान्तत्रयेण सार्घश्लोकेन परिहरति-अज्ञानेति । यथा वारिक्षिप्तकतकरेणुस्तद्गतं पकं निवर्त्य स्वयमप्यन्यानपेक्षो निवर्तते, यथा तप्तायःपिण्डनिक्षिप्तो जलबिन्दुः तद्गतं भस्म क्षालयित्वा स्वयमपि शुष्यति, यथा वा तृणकूटं दग्ध्वा वह्निभूमौ स्वयमेव शाम्यति, तथा अखण्डाकारवृत्तिरज्ञानं दग्ध्वा ब्रह्मणि स्वयमेव शाम्यतीत्यर्थः ॥२५-२६॥
उक्तदृष्टान्तेषु कालादृष्टादिकारणान्तरसंम्भवेन तद्वैषम्यमाशङ्कय मतान्तरमाहवृत्तीति । वृत्यभिव्यक्तं ब्रह्मैव अज्ञानं तत्कार्य तदन्तर्गतां वृत्तिं च नाशयति । यथा सूर्यकान्तशिलारूढः सूर्यकरः तृणं दहति, तद्वदित्यर्थः । तथा च न द्वैतापत्तिरिति भावः ॥ २७ ॥ यों आधे श्लोकसे शङ्का करके तीन मतके तीन दृष्टान्त डेढ़ श्लोकसे दर्शा कर समाधान करते हैं जैसे गन्दे जलमें डाली गई निर्मली जलगत पङ्कको निवृत्त करती हुई स्वयं ( अन्यकी अपेक्षा किये बिना ही) निवृत्त हो जाती है, वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये, ऐसा कई एक कहते हैं । इस विषयमें दूसरे लोग ऐसा दृष्टान्त देते हैं कि जैसे तप्तलोहके ऊपर पड़ा हुआ जलबिन्दु तद्गत भस्मका क्षालन कर स्वयं भी शुष्क हो जाता है। वैसे ही यह वृत्ति निवृत्त होती है, और कई एक तो जैसे तृणसमूहका दाह करके अग्नि भूमिमें स्वयमेव उपशान्त हो जाती है, वैसे ही अखण्डाकारवृत्ति भी अज्ञानका दाह कर ब्रह्ममें स्वयं उपशान्त हो जाती है, ऐसा कहते हैं ॥ २६ ॥
उक्त दृष्टान्तोंमें काल, अदृष्ट इत्यादि अन्य कारणोंका भी संभव होनेके कारण तत्प्रयुक्त वैषम्यकी आशङ्का करके अन्य मतका निरूपण करते हैं'वृत्त्यारूढः' इत्यादिसे ।
वृत्तिमें आरूढ़ साक्षी (वृत्त्यभिव्यक्त ब्रह्मचैतन्य) ही अज्ञान और अज्ञानकार्यके अन्तर्गत वृत्तिका नाश करता है । जैसे सूर्यकान्तमणिपर आरूढ़ सूर्यकिरण तृणको जलाती हैं, वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये, अतः द्वैतापत्ति नहीं होती ।। २७ ।।
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