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चतुर्थ स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
आनन्दबोधगुरवोऽविद्याविनिवृत्तिरात्मनो भिन्ना | सदसत्सदसन्मिथ्याप्रकारभिन्नप्रकारिकेत्याहुः || ५ ॥ अद्वैतबोध गुरवस्त्वात्मज्ञानैककालीना । विनिवृत्तिरविद्यायाः क्षणिका सा भावविक्रियेत्याहुः ॥ ६ ॥
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ब्रह्मस्वरूपस्याऽसत्त्वापादकत्वाद विद्यैवाऽभावः । तन्निवृत्तिश्च ब्रह्मस्वरूपैवेति मतेनोत्तरमाह - ब्रह्मवेत्यादिना । तथा च यस्मिन् सति यत्सत्त्वं यदभावे च यदभावः तत् तत्र कारणमिति ज्ञानस्य ब्रह्मस्वरूपमुक्तिं प्रति योगक्षेमसाधारण हेतुत्वं सम्भवतीति भावः ॥ ४ ॥
आत्मान्यैवाऽविद्यानिवृत्तिः । सा च न सती, द्वैतापत्तेः; नाऽप्यसती, ज्ञानसाध्यस्वायोगात् ; नाऽपि सदसती, विरोधात्; नाऽप्यनिर्वाच्या, अनिर्वाच्यस्योपाधेरज्ञानापादकत्वनियमेन मुक्तावपि तदनुवृत्तिप्रसङ्गात् ज्ञानानिवर्त्यत्वापत्तेश्व । किन्तु उक्तप्रकारचतुष्टयातिरिक्तप्रकारेति मतान्तरमाह – आनन्दबोधेति ॥ ५ ॥
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अस्त्वनिर्वचनीयैव सा, तथापि नोपादानाविद्यालेशप्रसक्तिः । उत्पत्तिद्वितीयक्षणे
ब्रह्मस्वरूपकी असत्त्वापादक होनेसे अविद्या ही अभाव है और उसकी निवृत्ति ब्रह्मस्वरूप ही है, ब्रह्मसे अतिरिक्त कोई निवृत्ति पदार्थ है ही नहीं, ऐसा ब्रह्मसिद्धि - कारादिका मत है । इस परिस्थिति में जिसके रहनेपर जो रहता है और जिसके अभावमें जो नहीं रहता, वह उसके प्रति कारण होता है, यह फलतः प्राप्त होता है । इससे सार यह निकला कि ब्रह्मस्वरूप मुक्ति के प्रति ज्ञानमें योगक्षेम साधारण हेतुता हो सकती अर्थात् ज्ञान मुक्तिका उत्पादक और रक्षक है ॥ ४ ॥
इसी विषय में मकरन्दकार आनन्दबोधाचार्यका मत दर्शाते हैं - 'आनन्दबोध०' इत्यादिसे ।
आनन्दबोध गुरुका मत है कि अविद्यानिवृत्ति आत्मासे भिन्न है और वह यदि सत् हो, तो द्वैतापत्ति होगी । यदि उसे असत् कहें, तो उसमें ज्ञानसाध्यता नहीं बनती। विरोध होनेसे सत् और असत् तो उसको कह नहीं सकते । यदि इन सब विकल्पोंसे बचने के लिए उसे अनिर्वचनीय मानें, तो अनिर्वाच्य उपाधि नियमसे अज्ञानकी आपादक होती है, इससे मुक्ति में भी उसकी अनुवृत्तिका प्रसङ्ग हो जायगा, इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानसे अनित्व की भी आपत्ति होगी। इससे फलित यह हुआ कि उक्त चारों प्रकारोंसे भिन्न पाँचवें प्रकारकी अविद्यानिवृत्ति माननी चाहिये ॥ ५ ॥
'अद्वैत बोध०' इत्यादिसे । अद्वैतबोध गुरु तो अविद्यानिवृत्तिको आत्मज्ञान
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