Book Title: Siddhant Kalpvalli
Author(s): Sadashivendra Saraswati
Publisher: Achyut Granthmala

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Page 127
________________ १०२ सिद्धान्तकल्पवल्ली [ अविद्यानिवृत्तिस्वरूपवाद सर्वज्ञात्ममुनीद्रास्त्वाहुब्रह्मात्मविज्ञानात् । स्वाविद्याविनिवृत्तौ नाऽविद्यालेशसंभवोऽस्तीति ॥३॥ २. अविद्यानिवृत्तिस्वरूपवादः अथ केयमविद्याया विनिवृत्तिर्नाम तच्छृणुत । ब्रह्मैव नातिरिक्ता सेत्याहुब्रह्मसिद्धिकारायाः ॥ ४ ॥ वासनावस्थानायोगमाशङ्कय मतान्तरमाह-अन्ये स इत्यादिना । सः-अविद्यालेश इत्यर्थः ॥ २॥ विरोधिज्ञानोदयेऽविद्याया निवृत्तौ लेशतोऽपि तस्याः शेषो न संभवति, सत्संभवे तन्नाशाय ज्ञानान्तरकल्पने तस्यैव लाघवादविद्यानाशकत्वौचित्यादिति मतान्तरमाह-सर्वज्ञेति । तस्य तावदेव चिरम्' इति श्रुतेरात्मज्ञानप्रशंसार्थत्वेन जीवन्मुको तात्पर्याभावादर्थवादमात्रत्वादिति भावः ॥ ३ ॥ तत्राऽविद्यानिवृत्तिरूपज्ञानफलस्वरूपनिर्णयाय पृच्छति-अथेति । नित्यसिद्धस्य ( मदिराकी वासना ) रहता है, वैसे ही अविद्याकै निवृत्त होनेपर जो उसकी वासना रहती है, वही अविद्याका लेश कहलाता है। वासनाकी किसी आश्रयके बिना अवस्थिति नहीं हो सकती, अतः अन्य मत दर्शाते हैं-दग्ध वस्त्रकी नाई आभासकी अनुवृत्तिसे युक्त अविद्या ही अविद्या. लेश है, ऐसा अन्य मानते हैं ॥२॥ ___'सर्वज्ञात्म०' इत्यादि । सर्वज्ञात्ममुनीन्द्र तो यों कहते हैं कि ब्रह्मात्मविज्ञानसे अपनी अविद्याकी निवृत्ति हो जानेपर अविद्यालेशका संभव हो नहीं सकता, क्योंकि विरोधी ज्ञानका उदय होते ही जब सारी अविद्याकी निवृत्ति हो जायगी, तब उसका लेश हो ही नहीं सकता। यदि माना जाय, तो उसकी निवृत्तिके लिए अन्य ज्ञानकी कल्पना करनी पड़ेगी, अतः इसी ज्ञानको अविद्यानाशक मानने में लाघव है। 'तस्य तावदेव चिरम्' यह श्रति तो केवल आत्मज्ञानकी प्रशंसा करती है, अतः जीवन्मुक्तिमें तात्पर्य न होनेसे वह अर्थवादमात्र है ।। ३॥ अविद्यानिवृत्तिरूप जो ज्ञानका फल कहा गया है, उसके स्वरूपके निर्णयक लिए पूछते हैं-'अथ' इत्यादिसे। यह जो अविद्याकी विनिवृत्ति कही वह कौन है ? सुनो, कहते हैं-नित्यसिद्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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