Book Title: Siddhant Kalpvalli
Author(s): Sadashivendra Saraswati
Publisher: Achyut Granthmala

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Page 131
________________ सिद्धान्तकल्पवल्ली [ ब्रह्मानन्द का प्राप्यत्ववाद आनन्दः संसारे सन्नपि पारोक्ष्यतो न पुरुषार्थः । अपरोक्षतया मुक्तिदशायां पुरुषार्थ इत्येके ॥ १२ ॥ अज्ञानेनाऽध्यस्तश्चैतन्यानन्दयोः पुरा भेदः । तन्नाशे भेदलयात्तदापरोक्ष्यं भविष्यतीत्यन्ये ॥ १३ ॥ maanan अप्राप्तिरध्यस्यते । विद्ययाऽऽवरणनिवृत्तौ तत्प्रयुक्ताऽप्राप्तिर्निवर्तत इत्यप्राप्तिः प्राप्तिश्च मुख्यवेति मतमाह-आनन्द इति ॥ ११ ॥ संसारदशायां आनन्दस्याऽऽवृतत्वेन परोक्षत्वान्न स पुरुषार्थः । मुक्तिदशायां तु आवरणभनेनाऽपरोक्षत्वात् पुरुषार्थो भवतीति मतान्तरमाह-आनन्द इति । न च संसारदशायां आनन्दस्य स्वरूपज्ञानेनाऽऽपरोक्ष्यमस्ति, तदाऽस्य तदभिन्नत्वादिति वाच्यम् , नहि स्वव्यवहारानुकूलचैतन्याभेदमात्रमापरोक्ष्यम् , येन तथा स्यात् । किन्तु अनावृतचैतन्याभेद एव । तथा च अनावृतत्वस्य तदानीमभावेन न दोष इति भावः ॥ १२ ॥ अस्तु स्वव्यवहारानुकूलचैतन्याभेदमात्रमापरोक्ष्यम् , तथापि अज्ञानमहिम्ना जीवमेदवचैतन्यानन्दयोर्भेदोऽप्यध्यस्त इति संसारदशायां पुरुषान्तरस्य पुरुषान्तर होती है, फिर विद्यासे आवरणकी निवृत्ति होनेपर वह आवरणप्रयुक्त अप्राप्ति भी निवृत्त हो जाती है, इस रीतिसे अप्राप्ति और प्राप्ति दोनों मुख्य ही हैं। ऐसा अन्य कहते हैं ॥ ११॥ ___'आनन्दः' इत्यादि । संसारदशामें आनन्द तो है ही, किन्तु परोक्ष होनेसे वह पुरुषार्थ नहीं है । मुक्तिदशामें तो आवरणका भङ्ग हो जानेके कारण वह अपरोक्ष होकर पुरुषार्थ होता है, ऐसा कई एकका मत है। संसारदशामें भी आनन्द स्वरूपज्ञानसे अपरोक्ष है ही, क्योंकि उस समय आनन्दकी स्वरूपज्ञानसे अभि. नंता है, ऐसी शंका करके परिहार करते हैं कि स्वव्यवहारानुकूल चैतन्याभेदमात्र अपरोक्षत्व नहीं है, जिससे कि उक्त शंका हो, किन्तु अनावृत चैतन्याभेद हो अपरोक्षत्व है, अतः संसारदशामें अनावृतत्वका अभाव होनेसे कोई दोष नहीं है ॥ १२॥ । 'अज्ञानेना.' इत्यादि। स्वव्यवहारानुरूप चैतन्याभेदमात्रमें अपरोक्षत्व भले ही माना जाय, तथापि अज्ञानकी महिमासे. जैसे जीवभेद अभ्यस्त है, वैसे ही चैतन्य और आनन्दका भेद भी अभ्यस्त है, अतः संसारदशामें एक पुरुषको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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