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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[ कर्मों की विद्योपयोगिता
कर्मनिकरोपयोगं वाचस्पतिराह वेदनेच्छायाम् । जगुरिष्यमाण एव ज्ञाने तं विवरणानुगताः ॥ २ ॥ २. आश्रमकर्मणामेव विद्योपयोगवादः तत्राऽऽश्रमविहितानामुपयोग कर्मणां विदुः केचित् । अन्ये कल्पतरूया विधुरकृतानामपीममभिदधति ॥ ३॥
mmmmmmmmmar क्क तर्हि कर्मणामुपयोग इत्यत आह-कर्मेति । 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन' इत्यादिश्रुतेर्यज्ञादीनां कर्मणां सन्प्रत्ययार्थत्वेन प्रधानम्तायां वेदनेच्छायामुपयोग इत्यर्थः । प्रकृतिप्रत्ययार्थयोः प्रत्ययार्थस्य प्राधान्यमिति सामान्यन्यायादिच्छाविषयतया शब्दबोध्य एव वस्तुनि शाब्दसाधनतान्वय इति स्वर्गकामवाक्ये क्लप्तविशेषन्यायस्य बलीयस्त्वादिष्यमाणे ज्ञान एव यज्ञादीनामुपयोग इति मतान्तरमाह-जगुरित्यादिना। तं उपयोगमित्यर्थः ॥ २ ॥
श्रुतौ वेदानुवचनग्रहणं ब्रह्मचारिकर्मणाम् , यज्ञदानग्रहणं गृहस्थकर्मणाम् ,
तब काँका उपयोग कहाँ है ? इसका उत्तर देते हैं-'कर्म' इत्यादिसे ।
भामतीकार वाचस्पतिमिश्रका मत ऐसा है कि ज्ञानकी इच्छामें ( जिज्ञासामें) सम्पूर्ण कर्मोंका उपयोग होता है, क्योंकि 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसा' ( इस आत्माको ब्राह्मण लोग वेदानुवचनसे, यज्ञसे और तपसे जाननेकी इच्छा रखते हैं) इत्यादि श्रुतिसे यज्ञ, दान आदि कर्मोंका, सन् प्रत्ययके अर्थ प्रधानभूत वेदनकी इच्छामें उपयोग होता है । और विवरणकारप्रकाशात्मश्रीचरणके अनुयायियोंका कहना है कि इष्यमाण (इच्छाविषयीभूत ) ज्ञानमें कर्मोंका उपयोग है, क्योंकि 'प्रकृतिप्रत्ययार्थयोः प्रत्ययार्थस्य प्राधान्यम्' (प्रकृतिधातु-और प्रत्यय-इन दोनोंके अर्थमें प्रत्ययार्थका प्राधान्य है) इस सामान्य न्यायकी अपेक्षा इच्छाका विषय होकर शब्दसे जो बोध्य होता है, उसीमें शाब्द साधनताका अन्वय होता है, इस प्रकारके स्वर्गकामवाक्यमें कल्पित विशेषन्यायके बलवान होनेसे इध्यमाण ज्ञानमें ही यज्ञादिका उपयोग मानना उचित है ॥ २॥
'तत्राऽऽश्रम०' इत्यादिसे । श्रुतिमें वेदानुवचन जो कहा है, वह ब्रह्मचारीके कोका उपलक्षण है और यज्ञ, दान आदिका जो ग्रहण है, वह गृहस्थ कर्मोका
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