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सिद्धान्तकल्पवल्ली [ सुखादिके अननुसन्धानमें प्रयोजक
तस्माज्जडस्य जगतो मिथ्यात्वाद्देहिनां पराभेदात् । मानान्तराविरोधाद्ब्रह्मणि वेदान्तसंगतिः सिद्धा ॥ ५२ ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य-श्रीपरमशिवेन्द्रपूज्यपादशिष्य-श्रीसदाशिवब्रह्मेन्द्रविरचित
वेदान्तसिद्धान्तकल्पवल्ल्यां द्वितीयः स्तबकः समासः ।
कत्वायोगादिति भावः । प्रागुक्तान्तःकरणभेद एव प्रयोजक इति मतान्तरमाहकेचिन्मनोभिदेति । एवं प्रयोजक इत्यर्थः । पूर्वोक्ताज्ञानभेद एव प्रयोजक इति मतान्तरमाह-अज्ञानेति ॥ ५१ ॥
प्रासनिक परिसमाप्य प्रपञ्चितं प्रकृतमविरोधमुपसंहृत्य पूर्वस्तबकसिद्ध. समन्वयेन संगमयति-तस्मादिति ॥ ५२ ॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमत्परमशिवेन्द्रपूज्यपाद शिष्यश्रीसदाशिव-ब्रह्मेन्द्रिप्रणीतश्रीवेदान्तसिद्धान्तकल्पवल्लीव्याख्यायां केसरवरख्यायां
द्वितीयः स्तबकः।
कल्पना उचित होनेके कारण मायोपकल्पित उपचयादिमें शरीरभेदकत्व नहीं होता । कई एक तो मनोभेद ही सुखादिके अननुसन्धानमें प्रयोजक होता है, ऐसा कहते हैं । इस विषयमें कई एकका तो अज्ञानभेद ही सुखादिके अननुसन्धानका प्रयोजक है; ऐसा मत है ।। ५१ ॥
प्रासङ्गिक विषयको परिसमाप्ति करके इतने प्रन्थसे प्रपश्चित प्रकृत अवि. रोधका उपसंहार करके पूर्वस्तबकसिद्ध समन्वयके साथ सङ्गति करते हैं'तस्माजडस्य' इत्यादिसे।
चूंकि उक्त प्रकारसे जड़ जगत् मिथ्या है, देहीका-आत्माका-परसे (परमात्मासे ) अभेद है और किसी प्रमाणान्तरसे विरोध नहीं है, इसलिए ब्रह्ममें ही सब वेदान्तोंकी सङ्गति सिद्ध होती है ।। ५२ ॥
महामहोपाध्यायपण्डितवर श्रीहाथीभाईशास्त्रिविरचित-सिद्धान्त.
कल्पवल्ली-भाषानुवादमें द्वितीय स्तबक समाप्त ।
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