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द्वितीय स्तंबक ] भाषानुवादसहिता
इतरे शरीरभेदस्तथेति केचिन्मनोभिदैवमिति । अज्ञानभेद एव प्रयोजकः स्यादिहेत्येके ॥ ५१ ॥
Arr.inrrrrrrrrr दिति चेत् , न; हस्तावच्छिन्नस्य तदननुसंधानेऽप्यवयवावयविनोः पादावच्छिन्नस्याऽनुसंघानाद्धस्तव्यापारोपपत्तेरिति भावः । हस्तावच्छिन्नस्याऽपि चरणावच्छिन्नवेदनाननुसंधानमभ्युपगम्य मतान्तरमाह-विश्लेषशालीत्यादिना। अत्र विश्लेषशब्देन एकस्मिन्नवयविनि घटकत्वेनाऽननुप्रविष्टत्वं विवक्षितम् । तेन मातृगर्भस्थशरीरयोविश्लिष्टतया न गर्भस्थस्य मातृसुखानुसंधानप्रसङ्गः । हस्तपादयोस्तु संश्लिष्टत्वेन तदवच्छिन्नयोः परस्परानुसंधानमिष्टमेवेति भावः ॥ ५० ॥
मतान्तरमाह-इतर इति । तथा-प्रयोजक इत्यर्थः । नन्ववयवोपचयादिना शरीरभेदात् कथं यौवने बाल्यपुत्राद्यनुसंधानमिति चेत् , न; ऐन्द्रजालिकशरीरादाविव सर्वत्र माययैवोपचयादिकल्पनौचित्यात् तत्कल्पितोपचयादेः शरीरभेदलनेके लिए हस्तका व्यापार नहीं होगा, क्योंकि हस्तावच्छिन्न चैतन्यको चरणमें लगे हुये कण्टकसे वेदनाका अनुसन्धान नहीं होगा।
समाधान नहीं ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि हस्तावच्छिन्न चैतन्यको वेदनाका अनुसन्धान न हो, तो भले ही न हो, परन्तु अवयव पाद और अवयवी शरीर-इन दोनोंका अभेद होनेसे 'पादावच्छिन्न वेदनावान् मैं हूँ' ऐसा शरीरावच्छिन्नको अनुसन्धान होनेके कारण हस्तव्यापार हो सकता है । ___हस्तावच्छिन्न चैतन्यको भी चरणावच्छिन्न वेदनाका अनुसन्धान नहीं होता, ऐसा स्वीकार करके मतान्तर कहते हैं-विश्लेषशाली (विभक्त ) भोगायतन ( शरीर ) का भेद सुखाद्यननुसन्धानका प्रयोजक है। यहाँ विश्लेषशब्दसे एक अवयवमें घटकरूपसे अननुप्रविष्ट, ऐसा अर्थ विवक्षित है। ऐसा माननेसे माता और गर्भस्थ शरीर-इन दोनोंके विश्लिष्ट होनेके कारण गर्भस्थको मातृसुखादिके अनुसन्धानका प्रसङ्ग नहीं आता । और हस्त और चरण तो संश्लिष्ट हैं, अतः तदवच्छिन्न दोनों चैतन्योंको परस्पर अनुसन्धान होता है ॥ ५० ॥ इसी विषयमें और तीन मतान्तर दर्शाते हैं-'इतरे' इत्यादिसे ।
अन्यमतवाले, शरीरका भेद ही सुखादिके अननुसन्धानका प्रयोजक है, ऐसा कहते हैं।
शङ्का-जब अययवोंका उपचय (वृद्धि) होनेसे भी शरीरभेद हो जाता है, तब बाल्यमें अनुभूत सुखादिका यौवनमें अनुसन्धान कैसे होगा ?
समाधान-ऐन्द्रजालिक शरीरादिकी नाँई सर्वत्र मायासे ही उपचयादिकी
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