Book Title: Siddhant Kalpvalli
Author(s): Sadashivendra Saraswati
Publisher: Achyut Granthmala

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Page 105
________________ ८ . सिद्धान्तकल्पवल्ली [सुखदुःखादिका असाय अन्तःकरणस्यैव श्रुत्या तद्धर्मकत्वोक्तः। तद्भेदादेवोक्ता व्यवस्थितिः स्यादिति प्राहुः ॥ ४५ ।। अन्ये तु चिदाभासः सुखदुःखाद्याश्रयस्ततः सेति । अन्तःकरणविशिष्टस्तदाश्रयस्तेन सेत्यपरे ॥ ४६॥ 'कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिः' इत्यादिश्रुत्याऽन्तःकरणस्यैव सुखदुःखाद्याश्रयत्वाभिधानात् 'असङ्गो ह्ययं पुरुषः' इति जीवस्योदासीनत्वश्रवणादन्तःकरणोपाधिभेदादेव सुखादिव्यवस्थोपपद्यत इति मतेन समाधत्तेअन्तःकरणस्येति । कथं तात्मन्यहं सुखीत्यादिभोक्तृत्वादिप्रत्ययः ! अभीषणायामपि रज्जो भीषणसर्पतादात्म्यारोपेणाऽयं भीषण इत्यभिमानवदसनात्मनि मोहंकारतादात्म्यारोपाभोक्तृत्वाद्यभिमानोपपत्तेरिति भावः ॥ ४५ ॥ जडस्य भोक्तृत्वानुपपत्तेः अन्तःकरणाध्यस्तश्चिदाभास एव बन्धाश्रयः । अतस्तत्तद्भेदादिव्यवस्थेति मतान्तरमाह-अन्ये विति । चिदाभासाभेदाध्यासात् कूटस्थसंसाराभिमानः, स एव बन्ध इति न बन्धमोक्षवैयषिकरण्यमिति भावः । समाधान करते हैं-'अन्तःकरण.' इत्यादिसे । 'कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिः' (काम, संकल्प, संशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, धृति, अधृति,) इत्यादि श्रुतिसे सुख, दुःख आदिका आश्रय अन्तःकरण ही कहा गया है और 'असङ्गो ह्ययं पुरुषः' इस श्रुतिसे जीव असंग उदासीन कहा गया है। अतः अन्तःकरणरूप उपाधिके भेदसे ही सुखादिकी व्यवस्था हो सकती है । यदि शङ्का हो कि जब सुखादि अन्तःकरणके धर्म हैं, तब आत्मामें 'मैं सुखी' यों मोक्तपनका अनुभव कैसे होता है ? तो यह शङ्का युक्त नहीं है, क्योंकि जैसे अभीषण रज्जुमें भीषण सर्पका तादात्म्यारोप होते ही 'भीषण' ऐसा अभिमान होता है, वैसे ही असङ्ग आत्मामें भोक्तृरूप अहङ्कारका तादात्म्यारोप होनेके कारण भोक्तृत्वादिका अभिमान होता है ॥ ४५ ॥ इसी विषयमें मतान्तर दर्शाते हैं-'अन्ये तु' इत्यादिसे। अन्यमतवालोंका कहना है कि जड़में भोक्तृता घटती नहीं है, अतः अन्तःकरणाभ्यस्त चिदाभास ही बन्धका आश्रय है, इससे तत्-तभेदादिकी व्यवस्था होती है और चिदाभासके साथ अभेदाभ्यास होनेसे कूटस्थको संसाराभिमान होता है, यही बन्ध है, इसलिए बन्ध और मोक्षका वैयधिकरण्य-भिन्नाधिकरणता नहीं होता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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