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सिद्धान्तकल्पवल्ली [अर्थक्रियाकारित्ववाद
wwwww ७. मिथ्याभूतस्याऽपि व्यावहारिकसत्यार्थक्रियाकारित्ववादः
मिथ्यात्वं यदि जगतस्तत्कथमर्थक्रियासमर्थत्वम् । अत्र स्वमवदर्थक्रियां वदन्ति स्वतुल्यसत्ताकाम् ।। ३६ ॥ अन्ये तु स्वमोदितसाध्वसकम्पस्य जाग्रदनुवृत्या । नैवाऽर्थतक्रियाणां समसत्ताकत्वनियम इत्याहुः ॥ ३७॥ सालोकेऽप्यपवरके प्रविशत्पुरुषेण कल्पितं ध्वान्तम् । अर्थक्रियासमर्थ दृष्टमितीत्थं निदर्शयन्त्यपरे ॥ ३८॥
दृष्टिसृष्टिवादे सृष्टिदृष्टिवादे च मिथ्यात्वसंप्रतिपत्तेः कथं मिथ्याभूतस्याऽर्थक्रियाकारित्वमित्याशय स्वप्नसमानसत्ताकार्थक्रियाकारित्वं संभवतीति केषांचिन्मतेन परिहरति-मिथ्यात्वमिति ॥ ३६॥
स्वमभुजङ्गव्याघ्रादिजनितभयकम्पादेर्जाग्रद्दशायामध्यनुवृत्तिदर्शनादर्थानां तकियाणां च समानसत्ताकत्वनियमो नाऽस्तीति मतान्तरमाह-अन्ये विति॥ ३७॥
अत्राऽन्तर्गृहे तत्रत्यपुरुषान्तरीयघटादिदर्शनसमर्थप्रकाशवत्यकस्मात् प्रविशता
'मिथ्यात्वम्' इत्यादि । दृष्टिसृष्टिवादमें तथा सृष्टिदृष्टिवादमें प्रपञ्चका मिथ्यात्व तो सम्मत है, पर उसमें शङ्का यह होती है कि मिथ्याभूत पदार्थ अर्थक्रियाकारी कैसे हो सकते हैं ? ऐसी आशङ्का करके उत्तर कहते हैं कि जैसे स्वप्नके प्रातिभासिक सत्तावाले पदार्थ प्रातिभासिक अर्थक्रियाकारी होते हैं, वैसे ही जाग्रत्के व्यावहारिक सत्तावाले पदार्थ स्वतुल्यसत्ताक (व्यावहारिक सत्तावाले ) अर्थक्रियाकारी होते हैं ॥ ३६ ॥
स्वसमानसत्ताक अर्थक्रियाकारित्वके विषयमें मतभेद दर्शाते हैं-'अन्ये तु' इत्यादिसे। ___ अन्य तो यों कहते हैं कि स्वप्नमें भुजङ्ग और व्याघ्र आदिका दर्शन होने पर जो भय, कम्प आदि होते हैं, उनकी ( भय, कम्प आदिकी) अनुवृत्ति जाग्रदशा होनेपर भी दीखने में आती है, अतः अर्थ और अर्थक्रिया दोनोंमें समसत्ता ही हो, ऐसा नियम नहीं है ॥ ३७॥
'सालोके०' इत्यादि । घरके अंदर स्थित पुरुषके घटादिके दर्शनमें समर्थ प्रकाशके विद्यमान रहनेपर भी उस घरमें बाहरसे अकस्मात् प्रवेश करनेवाले किसी पुरुषके
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