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सिद्धान्त कल्पवल्ली [ अज्ञाननिवर्तकत्वानिवर्तकत्ववाद
द्विविधं विषयाज्ञानं विषयगतं पुरुषगतं चेति । तत्र च परोक्षवृच्या पुरुषगतस्यैव तस्य नाश इति ॥ ७९ ॥ पुंगतमेवाऽज्ञानं विक्षेपावरणकारणं तत्र । आवरणांशविनाशो वृच्या तावत्परोक्षयेत्येके || ८० ॥ अपरे तु विषयमात्राश्रितमिदमज्ञानमत्र नाशस्तु | अपरोक्षरूपवृत्या तस्मान्नियमो न भग्न इति ॥ ८१ ॥
समाधत्ते - द्विविधमिति । विषयावारकमज्ञानं द्विविधम्, विषयाश्रितं पुरुषाश्रितं चेति । तत्र आद्यमावरणं विक्षेपकार्यानुमेयम्; द्वितीयं साक्षिसिद्धम् । तत्र परोक्षवृत्त्या आद्यस्य विप्रकर्षात् संनिहितस्य द्वितीयस्यैव नाश इत्यर्थः । शास्त्रार्थश्रवणानन्तरं स्वस्य तद्विषयकाज्ञाननाशानुभवादिति भावः ॥ ७९ ॥
पुरुषाश्रितमेकमज्ञानमक्षिपटलमिव विप्रकृष्टविषयस्याऽप्यावरण विक्षेपहेतुः ब्रह्मण्यपि जीवकृताज्ञानविषयीकृते जगद्विक्षेपाभ्युपगमात् । तत्र परोक्षवृत्त्या आवरणांशस्यैव नाशमाह - पुंगतमिति ॥ ८० ॥
शुक्त्यादितादात्म्यापन्नरजताद्यनुभवोऽसत्यः स्यात् । तदुपादानमज्ञानं विषयगतं तदावारकम् । न चैवं सति तस्य साक्षिसंसर्गाभावे तद्भास्यत्वं न स्यादिति
ऊपरकी शङ्काका समाधान करते हैं - 'द्विविधम्' इत्यादिसे ।
विषयका आवारक अज्ञान दो प्रकारका है - एक विषयाश्रित और दूसरा पुरुषाश्रित । इन दोनों में से प्रथम जो आवरण है, वह विक्षेपरूप कार्यसे अनुमेय है और द्वितीय तो साक्षिसिद्ध है । उनमें प्रथम उक्त जो विषयावारक अज्ञान है, उसकी परोक्ष वृत्तिसे निवृत्ति नहीं होती; क्योंकि विषय समीपमें नहीं है, किन्तु सन्निहित जो द्वितीय -- पुरुषगत साक्षिसिद्ध - अज्ञान है, उसकी निवृत्ति होती है, क्योंकि शास्त्रार्थ - श्रवणके बाद तद्विषयक अपने अज्ञानके नाशका अनुभव होता है ।। ७९ ॥
'पुंगतम्' इत्यादि । पुरुषाश्रित एक ही अज्ञान, नेत्रके पटलकी नाई, विप्रकृष्ट विषय के भी आवरण और विक्षेपका हेतु होता है; क्योंकि जीवकृत अज्ञानसे विषयी - कृत ब्रह्ममें भी जगद्विक्षेप मानते हैं । उसमें परोक्ष वृत्तिसे आवरणांशमात्रका विनाश होता है; ऐसा किसी एकका मत है ॥ ८० ॥
इस मत में शुक्त्यादि तादात्म्यापन्न रजतका अनुभव असत्य होगा; क्योंकि उसका उपादानभूत अज्ञान विषयगत होकर आवारक होता है। यदि कहो कि इसका साक्षीके साथ
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