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द्वितीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
द्वितीयः स्तबकः
१. श्रुतिप्रत्यक्षयोः प्राबल्यदौर्बल्यवादः ।
नन्वद्वैते ब्रह्मणि वेदान्तसमन्वयः कथं सिध्येत् । विश्वगतसच्च विषयप्रत्यक्षविरोधदर्शनादिति चेत् ॥ १ ॥ इह तच्चशुद्धिकारा: प्रत्यक्षं नो घटादि गृह्णाति । किन्तु घटाद्यनुविद्धं सन्मात्रमतो न विरोध इति ॥ २ ॥
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प्रथमस्तबके सर्ववेदान्तानाम द्वितीयब्रह्मणि समन्वयं व्युत्पाद्य तस्य दृढीकरणाय प्रमाणान्तरा विरोध व्यवस्थापयिष्यन् प्रथमं घटः सन्नित्यादिघटादिप्रपञ्चगतसत्त्वग्राहिप्रत्यक्ष विरोधात् कथमद्वितीये ब्रह्मणि वेदान्तानां समन्वयः सिध्येदिति प्रत्यक्षविरोध शङ्कते – नन्विति ॥ १ ॥
यदि प्रत्यक्षं घटादिप्रपञ्चं तत्सत्त्वं वा गृह्णीयात्, तदा परं विरोधः । न तथा गृह्णाति, किन्तु अधिष्ठानत्वेन घटाद्यनुगतं सन्मात्रमेव । तथा च प्रत्यक्षमपि सद्रूप ब्रह्माद्वैत सिध्यनुकूलमेवेति मतेन परिहरति — इहेति । यथा श्रमेष्विन्द्रियान्वय
प्रथम स्तबकमें ब्रह्ममें सब वेदान्तों के समन्वयका प्रतिपादन किया । पुनः उसीको दृढ़ करनेके लिए अन्य प्रमाणके साथ अविरोधकी व्यवस्था करते हुए ग्रन्थकार पहले – 'घटः सन्' इत्यादि घटादि प्रपंचगत सत्त्वग्राही जो प्रत्यक्ष होता है, उसके साथ विरोध होनेसे अद्वैत बह्ममें वेदान्तोंका समन्वय कैसे सिद्ध होगा ? यों प्रत्यक्षविरोधको आगे रखकर शङ्का करते हैं---' नन्वद्वैते' इत्यादिसे ।
अद्वैत ब्रह्ममें वेदान्तसमन्वय कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि प्रत्यक्ष से विश्वके raat प्रतीत होती है ॥ १ ॥
समाधान करते हैं - 'इह तच्च ० ' इत्यादिसे |
इस विषय में तत्वशुद्धिग्रन्थकारका कहना है कि प्रत्यक्ष यदि घटादि प्रपञ्चका अथवा तद्गत सवका ग्रहण करे, तो विरोध होगा, परन्तु प्रत्यक्ष ऐसा नहीं करता, किन्तु अधिष्ठानरूपसे घटादिमें अनुविद्ध सन्मात्रका ही ग्रहण करता है, अतः विरोध नहीं है । प्रत्युत प्रत्यक्ष भी सद्रूप ब्रह्माद्वैतकी सिद्धि में अनुकूल है । जैसे शुक्तिरजतादि भ्रम में इन्द्रियका अन्वय और व्यतिरेक, अधिष्ठान के
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