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द्वितीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
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२. श्रुतिप्रत्यक्षयोरुपजीव्योपजीवकभावविरोधपरिहारवादः ।
ननु वर्णाद्यवगाहिप्रत्यक्षस्याऽऽगमोपजीव्यत्वात् । उपजीव्यविरोधे सति हन्त प्राबल्यमागमस्य कथम् ॥ ९ ॥ शाब्दप्रमितौ वर्णाद्यध्यक्ष तु भ्रमप्रमानुगतम् । हेतुर्न तत्वरूपं तस्मान्न विरोध इत्याहुः || १० ॥
गौण्यादिकरूपनं युक्तमिति भावः । न तात्पर्येण श्रुतेः प्राबल्यम्, 'कृष्णलं श्रपयेत्' इत्यत्रोष्णीकरणलक्षणानापतेः किन्तु श्रुतिस्वादेव प्राबल्यमित्युत्सर्गः । स च मानान्तरस्य विषयान्तरसंभवस्थले चरितार्थः । तदसंभवेऽपोद्यत इति मतान्तरमाह - विवरणेति ॥ ८ ॥
वर्णपदादिगोचरत्वेन तत्प्रत्यक्षस्य श्रुताद्वितीयब्रह्मज्ञानहेतुत्वेनोपजीव्यत्वात्तद्विरोधे सति कथमागमस्य प्राबल्यमिति शङ्कते - नन्विति । अपच्छेद । धिकरणे हि उपजीव्यत्वाभावात् परेण पूर्वस्थ बाघो युक्तः, -इह तु न तथेति भावः ||९||
'वृषमानय' इत्यादिवाक्यं श्रवणदोषाद् 'वृषभमानय' इत्यादिरूपेण शृण्वतोऽपि है और 'यजमानः प्रस्तर: ' यहाँ प्रस्तरस्तुतिरूप अर्थवादका तो स्तुतिमें तात्पर्य है; स्वार्थ में तात्पर्य नहीं है, अतः यहाँ मानान्तर के साथ विरोध होनेसे गौणी आदि कल्पना करना युक्त है, ऐसा भाव है । विवरणकार प्रकाशात्मश्रीचरण और वार्त्तिककार सुरेश्वराचार्य — इन दोनों का मत है कि तात्पर्यसे श्रुतिका प्राबल्य नहीं है, किन्तु श्रुति होनेसे ही वह स्वयं बलवती है; अन्यथा 'कृष्णलं श्रपयेत्' ( सोने के उरदों को गरम करे ) यहाँ उष्णीकरणमें लक्षणाकी प्राप्ति न होगी, अत: श्रुतित्व ही प्राबल्यका प्रयोजक है, ऐसा उत्सर्ग है। यह उत्सर्ग, जहाँ मानान्तर के विषयान्तरका सम्भव होता है, वहाँ चरितार्थ होता है; और जहाँ मानान्तरका विषयान्तर नहीं होता, उस स्थलमें उसका अनुवाद होता है ॥ ८ ॥
शङ्का करते हैं - 'ननु' इत्यादिसे ।
वर्ण,
पद, वाक्य आदिको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष तो श्रुत अद्वितीय ब्रह्मज्ञानका हेतु होनेसे उपजीव्य है । यदि इस उपजीव्य के साथ विरोध होगा, तो आगमका प्राबल्य कैसे होगा ? अर्थात् अपच्छेदाधिकरणमें तो उपजीव्य नहीं होनेके कारण परसे पूर्वका बाध युक्त है; किन्तु यहाँ ऐसा नहीं है, ऐसा भाव है ॥ ९ ॥
पूर्वोक्त शङ्काका समाधान करते हैं - ' शाब्द०' इत्यादिसे ।
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