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सिद्धान्तकल्पवल्ली [ श्रुति और प्रत्यक्षमें बलाबल
श्रुतिरपि तात्पर्यवती बलीयसीत्याह भामतीकारः । विवरणवार्तिककारास्त्वाहुः श्रुतिमात्रमिह बलीय इति ॥ ८ ॥
नन्वेवं 'यजमानः प्रस्तरः' इति यजमानस्य प्रस्तराभेदबोधकश्रुत्या तद्भेदप्रत्यक्षमपि बाध्यतामित्याशक्याऽऽह-श्रुतिरपीति । तात्पर्यवत्येव श्रुतिर्मानान्तराद् बलीयसी । प्रस्तरस्तुत्यर्थवादस्य तु स्तुतौ तात्पर्यम् , न तु स्वार्थे । अतस्तत्र मानान्तरविरोधे
यदि शङ्का हो कि श्रुतिसे प्रत्यक्षका यदि बाध हो, तो 'यजमानः प्रस्तरः' (प्रस्तर-दर्भमुष्टियजमान है) इत्यादि प्रस्तरके साथ यजमानका अभेदबोधन करनेवाली श्रुति यजमान और प्रस्तरके भेदका बोध करनेवाले प्रत्यक्षका भी बाध करेगी; तो इस शङ्काका समाधान करते हैं-'श्रुतिरपि' इत्यादिसे ।
श्रुति भी तात्पर्यवती ही बलीयसी मानी जाती है, ऐसा भामतीकार वाचस्पतिमिश्र कहते हैं अर्थात् तात्पर्यवती श्रुति मानान्तरसे बलवती इस अधिकरणमें अपच्छेदन्याय दर्शाया है। प्रसंग ऐसा है कि ज्योतिष्टोम यागमें हविर्धानप्रदेशसे बहिष्पवमान स्तोत्र के लिए बहिष्पवमान स्थानको अध्वर्यु आदि जब जाते हैं, तब अध्वर्यु, प्रस्तोता, उद्गाता, प्रतिहा, ब्रह्मा, यजमान और प्रशास्ता-इन सातोंकी क्रमसे पंक्ति चलती है। उस समय अध्वर्युका काछ प्रस्तोता पकड़ता है, प्रस्तोताका काछ उद्गाता पकड़ता है, यों पूर्व-पूर्वका काछ पीछेवाला पकड़कर चलता है। यदि किसीके हाथसे अपने आगेवालेका काछ छूट जाय, तो इसको अपच्छेद कहते हैं । इसके प्रायश्चित्तके विचार में यदि प्रस्तोताके हाथसे अध्वर्युका काछ छूट जाय, तो यह प्रस्तोताका अपच्छेद कहलाता है। उसका प्रायश्चित्त ब्रह्माको वर देना लिखा है। यदि प्रतिहर्ताके हाथसे उद्गाताका काछ छूट जाय, तो यह प्रतिहर्ताका अपच्छेद कहलाता है। उसका प्रायश्चित्त सर्वस्व देना लिखा है। और यदि प्रस्तोताका कच्छ उद्गाताके हाथसे छूट जाय, तो उद्गाताका अपच्छेद होगा, ऐसी स्थितिमें जिस ज्योतिष्टोम यागका आरंभ किया है, उसको दक्षिणारहित पूरा करके फिर ज्योतिष्टोम याग करना चाहिए और उस यागमें पूर्व जो अदक्षिण याग किया है, उसमें देय दक्षिणा देनी चाहिए-इत्यादि लिखा है। जहां पहले प्रतिहतका अपच्छेद हुआ और पीछे उद्गाताका अपच्छेद हुआ, वहांपर संशय होता है कि पूर्वोत्पन्ननिमित्तक प्रायश्चित्त करना या उत्तरोत्पन्ननिमित्तक ? पूर्वपक्ष ऐसा है कि प्रथमोत्पन्ननिमित्तक ही प्रायश्चित करना चाहिए, क्योंकि यह असञ्जातविरोधी है । उपक्रमन्यायसे सिद्धान्त यह है कि जहां पूर्वनिमित्तज्ञानसे. उत्तरज्ञानोत्पसिका विरोध नहीं हो सकता, वहां उत्तर ज्ञान स्वविरोधी पूर्व ज्ञानका बाध करता हुआ ही उत्पन्न होता है। अतः उत्तर ज्ञानसे पूर्व जायमान प्रायश्चित्तज्ञान मिथ्या हो जाता है, क्योंकि वह उत्तर ज्ञानसे बाधित है। और उत्तर ज्ञानका तो कोई बाधक नहीं है, अतः पूर्वका दौर्बल्य है और उत्तरका प्राबल्य है। प्रकृतमें प्रथमप्रवृत्त प्रत्यक्ष दोषशङ्काग्रस्त होनेसे अनाप्ताप्रणीतत्वेन गृहीतव्याप्तिक उत्तर-वर्ती श्रुति उस प्रत्यक्षकी बाधक होनेके कारण प्रबल है।
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