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द्वितीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
केचित्तात्त्विकमेव हि सत्त्वं तस्याऽनुवेधतो जगति । सवाभिमते तस्मिन् सस्वनिषेधेऽप्यदोष इति ॥ १३ ॥ इत्थं तात्विकसत्ताभिन्नतदाभासकल्पनाभावे । सत्यरजतातिरिक्तो रजतामासः प्रकल्प्यते किमिति ॥ १४ ॥
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रिति तन्निषेधवत् प्रपञ्च सत्यत्वाभासप्रतीतिरेव पारमार्थिक सत्यत्वप्रतीतिरिति तन्निषेधोपपत्तेः । अतो व्यावहारिक सत्त्वानिषेधेन वर्णपदयोग्यतादिस्वरूपोपमर्दनशङ्कानवकाशान्नोपजीव्यविरोध इति मतान्तरमाह - तात्त्विकेति ॥। १२ ।।
ब्रह्मणि पारमार्थिकं सत्यत्वम्, प्रपञ्च व्यावहारिकम्, शुक्तिरजतादौ च प्रातिभासिकमिति सत्तात्रैविध्यं नोपेयते । अधिष्ठान ब्रह्मसचानुवेधादेव प्रपञ्च शुक्तिरजतादौ च सत्त्वाभिमानोपपत्त्या सत्त्वाभास कल्पनस्य निष्प्रमाणत्वात् । एवं च प्रपञ्च सत्त्वनिषेधेऽपि नोपजीव्य विरोध इति मतान्तरमाह - केचिदिति ॥ १३ ॥ नन्वेवं ब्रह्मगतपारमार्थिकसत्त्वातिरेकेण प्रपञ्च सत्त्वाभासानभ्युपगमे व्यवहितसत्यरजतातिरेकेण रजताभासोत्पत्तिः किमित्युपेयत इति शङ्कते - इत्थमिति ॥ १४ ॥
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उसका निषेध होता है, वैसे ही प्रपञ्च में सत्यत्वाभासकी प्रतीति ही पारमार्थिक सत्यत्वकी प्रतीति है, ऐसा मानने से उसका निषेध युक्त ही है । अतः व्यावहारिक सत्त्वका निषेध न होने से वर्ण, पद, योग्यता आदिके स्वरूपके उपमर्दनकी शङ्काका अवकाश ही न होनेसे उपजीव्यविरोध सर्वथा नहीं है; ऐसा कई एकका मत है ।। १२ ।।
'केचित्' इत्यादि । कई एकका मत है कि ब्रह्ममें पारमार्थिक सत्त्व है, प्रपञ्च में व्यावहारिक सत्त्व है और शुक्ति- रजत आदिमें प्रातिभासिक सत्त्व है; यों तीन प्रकारको सत्ता नहीं माननी चाहिये, क्योंकि अधिष्ठानभूत ब्रह्मकी सत्ता के अनुवेधसे ही प्रपञ्च और शुक्तिरजत आदिमें सत्त्वाभिमानकी उपपत्ति हो जाने से सत्त्वाभासकी कल्पना निष्प्रमाण है, अतः प्रपञ्च में सत्त्वका निषेध होनेपर भी उपजीव्य के साथ विरोध नहीं होता ।। १३ ॥
' इत्थम्' इत्यादि । इस प्रकार यदि ब्रह्मगत तात्त्विक सत्तासे भिन्न प्रपञ्च में सत्वाभासकी कल्पना नहीं होगी, तो सत्यरजतसे अतिरिक्त रजताभासकी क्यों कल्पना करते हो ? अर्थात् व्यवहित सत्य रजतसे भिन्न रजताभासकी उत्पत्ति क्यों मानते हो ? ॥ १४ ॥ ९
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