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सिद्धान्तकल्पवल्ली [ उपजीव्योपजीवकके विरोधका परिहार
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अन्ये तु योग्यतासिध्यपेक्षणेऽप्यत्र न विरोधः । आमुक्त्यसद्विलक्षणसत्त्वोपगमादिति प्राहुः ॥ ११ ॥ तात्विकसत्त्वेन जगनिषिध्यते नेह नानेति । तेन पदाधुपमर्दनशङ्काविरहान्न दोष इत्येके ॥ १२ ॥
शब्दप्रमितिदर्शनेन शाब्दप्रमितौ वर्णपदादेः प्रत्यक्ष भ्रमप्रमासाधारणमेव हेतुः, न तु वर्णपदादिस्वरूपम् । तस्मादद्वैतागमेन वर्णपदादिस्वरूपोपमर्देऽपि नोपजीव्यविरोध इति मतेन समाधत्ते-शाब्देति ॥ १० ॥
यद्यप्ययोग्यवाक्याच्छाब्दप्रमानुदयेन योग्यतास्वरूपसिध्यपेक्षाऽस्ति, तदपेक्षायामपि मुक्तिपर्यन्तं व्यावहारिकासद्विलक्षणत्वार्थक्रियासमर्थत्वाभ्युपगमान्नोपजीव्यविरोध इति मतान्तरमाह-अन्ये विति ॥ ११ ॥
'मेह नानास्ति' इति श्रुत्या पारमार्थिकसत्त्वेनैव प्रपञ्चो निषिध्यते, न तु व्यावहारिकसत्त्वेन । न चाऽप्रसक्तप्रतिषेधः, शुक्तौ रजताभासप्रतीतिरेव सत्यरजतप्रसक्ति
शाब्दप्रमितिमें वर्ण, पद आदिका प्रत्यक्ष हेतु है सही, पर वह हेतु भ्रम और प्रमा दोनोंमें साधारण है, क्योंकि 'वृषमानय' (वृषको ले आओ) इत्यादि वाक्यसे श्रवण करनेवालेको कानके दोषसे 'वृषभमानय' (वृषभको ले आओ) इत्यादिरूप शाब्द प्रमा होती है, ऐसा दीखने में आता है। इससे वर्ण, पद आदिका प्रत्यक्ष भ्रम और प्रमा दोनोंमें साधारण हेतु है, वर्ण, पदादिका स्वरूप हेतु नहीं है; यह ज्ञात होता है । अतः अद्वैतागमसे यदि वर्ण, पद आदिका स्वरूपोपमर्द हो, तो भी उपजीव्यविरोध नहीं है ॥ १०॥
मतान्तर दर्शाते हैं अन्ये तु' इत्यादिसे ।
अन्य यों मानते हैं कि यद्यपि अयोग्य वाक्यसे शाब्द प्रमाका उदय नहीं होता; इसलिये योग्यतास्वरूपकी अपेक्षा रहती है, तथापि उसको अपेक्षामें भी जबतक मुक्ति न हो तबतक व्यावहारिक असद्विलक्षण और अर्थक्रियामें समर्थ सत्त्वका अभ्युपगम है, अतः उपजीव्यके साथ विरोध नहीं होता है ॥ ११ ॥
इसी विषयमें मतान्तर कहते है-'ताचिकसत्त्वेन' इत्यादिसे ।
'नेह नानाऽस्ति किञ्चन' इस श्रुतिसे पारमार्थिक सत्त्वरूपसे प्रपञ्चका निषेध किया जाता है; व्यावहारिक सत्त्वरूपसे नहीं । यदि कहो कि अप्रसक्तका प्रतिषेध नहीं होगा अर्थात् प्रपञ्चमें पारमार्थिक सत्त्वकी प्रसक्तिन होनेसे उसका प्रतिषेध कैसे होगा? तो उत्तर देते हैं जैसे शुक्तिमें रजताभासप्रतीतिको ही सत्य रजतकी प्रसक्ति मानकर
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