Book Title: Siddhant Kalpvalli
Author(s): Sadashivendra Saraswati
Publisher: Achyut Granthmala

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Page 95
________________ ७० सिद्धान्त कल्पवल्ली स्वमाध्यासस्य परे प्राहुर्जाग्रत्प्रबोधतो बाधम् । ब्रह्मज्ञानेतरधीबाध्यतया प्रातिभासिकत्वं च ॥ २२ ॥ [ स्वप्नाधिष्ठानवाद केचिदविद्यावस्था लक्षण निद्रा निदानकः स्वमः | सांव्यवहारिक जीवज्ञानाद्विनिवर्त्य इत्याहुः ।। २३ ।। 'बाध्यन्ते चैते रथादयः स्वप्नदृष्टाः प्रबोधे' इति भाष्योक्तेर्जागरिते स्वप्न - मिथ्यात्वानुभवाच्च स्वप्नाध्यासस्य जाग्रत्प्रबोधादेव बाधः । ब्रह्मज्ञानेतरज्ञानबाध्यतया प्रातिभासिकत्वं चेति मतान्तरमाह – स्वप्नेति । उपादानाज्ञाने सत्यपि भ्रमरूपेणापि जाग्रत्प्रबोधेन स्वप्नभ्रमस्य रज्जौ दण्डभ्रमेण सर्पभ्रमस्येव बाधो युक्त इति भावः ।। २२ ।। - जाग्रद्भोगप्रदकर्मोपरमे व्यावहारिकजगज्जीवावावृण्वन्ती मूलाज्ञानावस्थाभेदरूपा निद्वैव स्वाप्रप्रपञ्चस्योपादानम्, न मूलाज्ञानम् । पुनश्च जाग्रद्भोगप्रदकर्मोद्बोधे व्यावहारिकजीवस्वरूपज्ञानात् स्वोपादाननिद्रारूपाज्ञाननिवृत्या तस्य निवृत्तिरिति मतान्तरमाह- केचिदिति ॥ २३ ॥ 'स्वप्नाध्यासस्य' इत्यादि । 'बाध्यन्ते चैते रथादयः स्वप्नदृष्टाः प्रबोधे ' ( स्वप्नमें देखे गये ये रथादि प्रबोध होते ही बाधित हो जाते हैं ) ऐसा भाष्यकार का वचन होनेसे तथा जागरण में स्त्रमका मिथ्यात्व अनुभूत होनेसे स्वप्नाध्यासका जाप्रत्प्रबोधसे ही बाध होता है और ब्रह्मज्ञानसे इतर बुद्धिसे बाध्य होनेके कारण स्वप्न में प्रातिभासिकत्व है ऐसा मतान्तरवाले कहते हैं । यहाँ उपादानभूत अज्ञान तो है ही, तथापि रज्जु में सर्पभ्रम के बाद जायमान दण्डभ्रमसे सर्पभ्रमका जैसे बाध होता है, वैसे ही भ्रमरूप जाप्रत्प्रबोध से भी स्वप्रभ्रमका बाध मानना युक्त है, ऐसा आशय है ॥ २२ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 'केचिद ० ' इत्यादि । जामद्बोधके हेतुभूत कर्मोंका उपराम हो जानेपर व्यावहारिक जाग्रत् और जीव- इन दोनोंका आवरण करती हुई मूल ज्ञानकी अवस्थाविशेष निद्रा ही स्वप्रप्रपञ्च की उपादान है, मूलाज्ञान नहीं । फिर जाग्रद् - भोगप्रद कर्मोंका जब. उद्बोध होता है; तब व्यावहारिक जीवस्वरूपका ज्ञान होनेसे स्वनोपादानभूत निद्रारूप अज्ञानकी निवृत्ति होनेके कारण उसकी निवृत्ति हो जाती है, ऐसा कई एकका मन्तव्य है ॥ २३ ॥ www.umaragyanbhandar.com

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