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द्वितीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
विम्बमुखात् पार्श्वस्थैर्भेदेन निरीक्ष्यमाणमादर्शे । प्रतिबिम्बितं मुखं तन्मिथ्येत्यद्वैत विद्याकृत् ॥ १८ ॥ ननु कथमयमध्यासस्तद्धेत्वज्ञानसंक्षयादिति चेत् । विक्षेपशक्तिमात्रवदज्ञानं तत्र हेतुरित्याहुः ॥ १९ ॥
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हतपरावृत्तदृष्टिसंनिकृष्टत्वात् । किन्तु 'ममेदं मुखं दर्पणे भाति नाऽत्र मुखमस्ति ' इति दर्पणस्थत्वबाधयोरनुभवादस्य दर्पणस्थत्वमेवा ऽध्यस्यत इति मतान्तरमाहइहेति ।
बिम्बमुखाद् भेदेन तत्सदृशत्वेन च पार्श्वस्यैः स्पष्ट निरीक्ष्यमाणं दर्पणे प्रतिबिम्बितं ततो भिन्नं स्वरूपतो मिथ्यैव, स्वकरगतादिव रजताच्छुक्तिरजतम् । 'दर्पणे मे मुखम्' इति व्यपदेशस्तु स्वच्छायामुखे स्वमुखव्यपदेशवगौण इति जीवत्रैविध्य वाद्यभिप्रायमा विष्कुर्वतां मतमाह – विम्बेति । अस्मिन् पक्षे प्रतिबिम्ब जीवस्य मिथ्यात्वेऽपि अवच्छिन्न जीवस्य सत्यत्वात् न पूर्वोक्तमुक्तिभाक्त्वानुपपत्तिरिति
भावः ॥ १८ ॥
दर्पणप्रत्यक्षेणोपादानाज्ञाननाशात् कथं प्रतिबिम्ब ध्यास इत्याशङ्कय तत्प्रत्य
होता, पर ऐसा तो है नहीं अर्थात् यहाँ दर्पण में मुखका अभ्यास नहीं है, किन्तु दर्पणसे प्रतिहत होकर परावृत्त हुई दृष्टिसे सन्निकृष्ट होनेके कारण मुखका भान होता है । केवल इस मुखका मुकुरगत्व - दर्पणस्थत्व - भासना भ्रम है; क्योंकि 'यह मेरा मुख दर्पण में भासता है; यहाँ मुख नहीं है' ऐसा दर्पणस्थत्व और बाधइन दोनों के अनुभूत होनेसे केवल दर्पणस्थत्व ही अध्यस्त है; ऐसा विवरणानुयायी कहते हैं ।। १७ ।।
'बिम्बमुखात्' इत्यादि । पार्श्वस्थ ( पास बैठे हुए) पुरुषों द्वारा बिम्बभूत ग्रीवास्थ मुखसे भिन्नरूपसे तथा उसके सदृशरूपसे निरीक्ष्यमाण दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख, स्वहस्तगत रजतसे भिन्न शुक्तिरजतके समान, उससे भिन्न एवं स्वरूपसे मिथ्या ही है; 'दर्पण में मेरा मुख है' ऐसा कथन तो अपने छायामुखमें स्वमुख के कथन के समान गौण है,
जीवकी त्रिविधता माननेवालोंका मत है । इस मतमें प्रतिबिम्बजीवका तो मिध्यात्व है, किन्तु अवच्छिन्न जीव सत्य है, अतः मुक्तिकी अनुपपत्ति नहीं होती ।। १८॥
'ननु' इत्यादि । दर्पणका प्रत्यक्ष होनेसे उपादानभूत अज्ञानका नाश हो जानेपर यह प्रतिबिम्बाभ्यास कैसे होगा ? यों शङ्का करके उसका परिहार करते हैं । यद्यपि
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