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प्रथम स्तबकं ] भाषानुवादसहिता
अहमाकारां वृत्तिमविद्यावृत्ति समाश्रित्य । संस्कारसंभवेन स्मृत्युपपत्तिं प्रसाधयन्त्यन्ये ॥ ९७ ॥ अपरे त्वहमिति वृत्तिरुपासनवन्मानसी न तु ज्ञानम् । मानाजन्यतयाऽतः संस्कारादिर्भवेदिति प्राऽऽहुः ॥ ९८ ॥ अन्ये तु न क्रियाऽहंवृत्तिर्ज्ञानं प्रमाणजन्यत्वात् । नाऽतश्चाऽहंकाराद्यनुसंधानेन दोष इत्याहुः ॥ ९९ ॥
'सुखमहमस्वाप्सम्' इति सुप्तोत्थितस्मृतेरुपपादनायाऽवश्यकरुप्यामहमाकारां वृत्तिमविद्यावृत्तिमजीकृत्याऽइंकारादिषु संस्काराद्युपपत्तिं प्रसाधयतां मतमाह-अहमाकारामिति ॥ ९७ ॥
अहमित्याकारा अन्तःकरणवृत्तिरेव । सा च उपासनावन्न ज्ञानम् , क्लप्तप्रमाणाजन्यत्वात् ततश्च संस्काराद्युपपत्तिरिति मतान्तरमाह-अपरे विति ॥९८॥
उपास्तिर्हि वस्तुप्रमाणातन्त्रत्वात् पुरुषप्रयत्नाधीनत्वाचाऽस्तु मानसी क्रिया । अहमाकारवृत्तिस्तु ज्ञानमेव, मनोरूपप्रमाणजन्यत्वात् वस्तुतन्त्रत्वाच्च । अतः संस्कारसंभवेनाऽहंकाराद्यनुसंधाने न काचिदनुपपत्तिरिति मतान्तरमाह-अन्ये विति ॥१९॥
अहङ्कारावच्छिन्नत्वरूपसे अहङ्कारका अवभासक साक्षी अनित्य है, अतः उससे संस्कार होगा और उस संस्कारसे अहङ्कारका स्मरण भी उपपन्न होगा ॥१६॥
इस विषयमें मतान्तर दर्शाते हैं-'अहमाकाराम्' इत्यादिसे । 'सुखमहमस्वाप्सम्' ( मैं सुखसे सोया ), ऐसा जागनेपर पुरुषको स्मरण होता है, इस स्मरणका उपपादन करनेके लिए अहमाकार वृत्तिकी कल्पना अवश्य करनी पड़ेगी, इसी अहमाकार वृत्तिको अविद्यावृत्ति मानकर अहङ्कारादिमें संस्कारका संभव होनेसे स्मरणकी उपपत्ति होती है, यों अन्यमतवाले कहते हैं ॥९॥
इस विषयमें मतान्तर दर्शाते हैं-'अपरे तु' इत्यादिसे । 'अहम्' इत्याकारक जो वृत्ति होती है, वह अन्तःकरणकी ही वृत्ति है और वह उपासनाकी नाई मानसी क्रिया है, ज्ञान नहीं है, क्योंकि क्लृप्त प्रमाणसे जन्य नहीं है, अतः उससे संस्कारादि अवश्य उत्पन्न होंगे, ऐसा अन्य मतवाले कहते हैं ॥९८॥
उपासना वस्तु और प्रमाणके अधीन होने और पुरुषप्रयत्नके अधीन होनेसे मानसी क्रियारूप भले ही हो; परन्तु मनोरूप प्रमाणजन्य और वस्तुतन्त्र होनेसे अहमाकारवृत्तिको तो ज्ञानरूप ही मानना उचित है; अतः संस्कारका संभव
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