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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[वृत्ति-निर्गमनवाद
इदमिति मानसवृत्तिरविद्यावृत्तिस्तु तद्भिन्ना। रजताकारा तस्या नेदंविषयत्वमित्यपरे ॥ १०६ ॥ १७. अपरोक्षानुभूत्यर्थ वृत्तेर्निर्गमवादः नन्वविनिर्गतवृत्त्यवच्छिन्नेनैव साक्षिबोधेन । सकलविषयावभासोपपत्तिरिति वृत्तिनिर्गमो व्यर्थः ॥१०७ ॥
भयगोचरा, 'इदं रजतं जानामि' इतीदमर्थतादात्म्येन रजतानुभवादिति मतान्तरमाहज्ञानद्वयमिति ॥ १०५॥
अध्यासात् पूर्वमिदमिति जायमाना वृत्तिानसी, रजताकारा तु इदमाकारवृत्त्यवच्छिन्नचैतन्यस्थाविद्यापरिणामरूपतयाऽविद्यावृत्तिः । तस्याश्च नेदंविषयत्वम् । इदमर्थतादात्म्यानुभवस्तु अघिगतेदंत्वविषयत्वसंसर्गेण युज्यत इति मतान्तरमाहइदमिति ॥ १०६ ॥
परोक्षस्थल इवाऽपरोक्षवृत्तिस्थलेऽप्यविनिर्गतवृत्त्यवच्छिन्नसाक्षिचैतन्येनैव सकलविषयावभासोपपत्तेरनुमितिशाब्दयोरिव कारणवैलक्षण्योपपत्तेः वृत्तेविषयदेशकल्पनं वृथेति शङ्कते-नन्विति ॥ १०७ ॥ ध्यासकी उपादानभूत एक इदंवृत्ति ही है और इदम् और अध्यस्त रजत-इन दोनोंका अवलम्बन करनेवाली वृत्ति दूसरी है, क्योंकि 'इदं रजतं जानामि' ( इस रजतको मैं जानता हूँ), यों इदमर्थके साथ तादात्म्यसे रजतका अनुभव होता है, ऐसा वृत्तिद्वयोपकल्पित दो ज्ञानोंको माननेवालेका मत है ॥ १०५॥
उक्त मतका प्रतिवाद करनेवालेका मत दर्शाते हैं-'इदमिति' इत्यादिसे ।
अध्याससे पूर्व उत्पन्न होनेवाली इदंवृत्ति मानसी क्रिया है; अविद्यावृत्ति तो इससे भिन्न है, क्योंकि इदमाकारवृत्त्यवच्छिन्न जो चैतन्य है, उस चैतन्यमें विद्यमान अविद्याके परिणामरूप रजताकार अविद्यावृत्ति होती है; उसको इदंविषयत्व नहीं है; इदमर्थके साथ तादात्म्यानुभव जो होता है, सो अधिगत (प्रथमोत्पन्न) इदंत्वविषयत्वके संसर्गसे बनता है, ऐसा अपर मतवाले मानते हैं ॥ १०६॥
'नन्व०' इत्यादि । परोक्षस्थलकी नाई अपरोक्षवृत्तिस्थलमें भी अनिर्गत वृत्सेि अवच्छिन्न साक्षिचैतन्यसे ही सकल विषयोंका अवभास उपपन्न होनेके कारण वृत्तिनिर्गमनका मानना व्यर्थ है अर्थात् अनुमिति और शब्दज्ञान-इन दोनोंकी नाई कारणको विलक्षणता तो उपपन्न है फिर वृत्तिका बहिर्देशसे विषयदेशमें गमनकी कल्पना वृथा है, ऐसी शंका करके उत्तर श्लोकसे समाधान करते हैं ॥ १०७ ।।
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