Book Title: Siddhant Kalpvalli
Author(s): Sadashivendra Saraswati
Publisher: Achyut Granthmala

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Page 80
________________ पप प्रथम स्तबक ] भाषानुवादसहिता a c rormanade अत्र वदन्त्यपरोक्षे विषयाधिष्ठानभूतचिव्यक्त्यै । तनिमाभ्युपगमो युक्तो न तु परोक्ष इति केचित् ॥ साक्षाचित्संसर्गादुःखादिष्वापरोक्ष्यदर्शनतः । तत्सिद्धये घटादौ वृत्तेर्निर्गमनमित्यन्ये ॥ १०९. प्रत्यक्षे गन्धादौ स्पष्टत्वं वृत्तिनिर्गमाधीनम् । दृष्टमतोऽन्यत्रापि स्पष्टत्वायैतदित्यपरे ॥ ११० तादात्म्यसंबन्धसंभवे स्वरूपसंबन्धस्य कल्पनायोगात् प्रत्यक्षस्थले तादाम्यने विषयाधिष्ठानचैतन्यमेव विषयप्रकाश इति तदभिव्यक्त्यर्थं युक्तो वृत्तिनिर्गमाभ्युपगमः । परोक्षस्थले तु न तथा । तत्र वृत्तिनिर्गमद्वाराभावेनाऽगत्या स्वरूपसंबन्धेनाविनिर्गतवृत्त्यवच्छिन्नचैतन्यमेव विषयप्रकाश आश्रियत इति मतेन समाधत्तेअत्रेति ॥ १०८॥ ___ अहङ्कारसुखदुःखादिषु साक्षाच्चैतन्यसंसर्गेणैवाऽपरोक्षदर्शनादत्राऽपि तथैवेति तत्सि ये घटादौ वृत्तेनिर्गमः समभ्युपगम्यत इति मतान्तरमाह-साक्षादिति ॥१०९॥ ___परोक्षापेक्षया प्रत्यक्षे गन्धादावनुभूयमानं स्पष्टत्वं वृत्त्यभिव्यक्तचैतन्यतादात्म्यप्रयुक्तं दृष्टमित्यतोऽन्यत्राऽपि स्पष्टत्वार्थ वृत्तिनिर्गमनमपेक्षत इति मतान्तरमाहप्रत्यक्ष इति ॥ ११०॥ 'अत्र' इत्यादि। इस विषयमें कई एक कहते हैं कि जहाँ तादात्म्यसम्बन्धका सम्भव हो, वहाँ स्वरूप सम्बन्धकी कल्पना योग्य नहीं है, किन्तु प्रत्यक्षस्थलमें तादात्म्यसे विषयाधिष्ठान चैतन्य ही विषयप्रकाश है, अतः उसकी अभिव्यक्तिके लिए वृत्तिनिर्गमका मानना युक्त है। और परोक्षस्थल में तो वृत्तिके निर्गमका द्वार न होनेसे अगत्या स्वरूप सम्बन्धसे अनिर्गत वृत्तिसे अवच्छिन्न चैतन्यको ही विषयप्रकाश मानना पड़ता है, इस मतसे पूर्वोक्त शङ्काका समाधान दर्शाया ॥ १०८ ॥ 'साक्षात्' इत्यादि । अहङ्कार और सुख-दुःखादिके विषयमें जैसे साक्षात् चैतन्यके संसर्गसे ही अपरोक्षत्व होता है, वैसे ही इस घटादि विषयमें भी अपरोक्षत्वकी सिद्धिके लिए वृत्तिके निर्गमनका स्वीकार किया जाता है, ऐसा मतान्तर है ॥ १०९ ॥ 'प्रत्यक्षे' इत्यादि । प्रत्यक्ष गन्धादिमें स्पष्टत्व वृत्तिनिर्गमनाधीन देखा जाता है अर्थात् परोक्षकी अपेक्षा प्रत्यक्ष गन्धादिमें जो स्पष्टता प्रतीत होती है, वह स्पष्टता वृत्त्यभिव्यक्त चैतन्यतादात्म्यप्रयुक्त ही देखनेमें आती है, अतः अन्यत्र भी स्पष्टताके लिए वृत्तिनिर्गमन अपेक्षित है; ऐसा अपर मानते हैं ॥ ११० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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