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प्रथम स्तवक ]
भाषानुवादसहिता
मूलप्रकृतिर्माया तस्याः शक्तिद्वयोपेतः । अंशो भवेदविद्येत्युक्तं प्रकटार्थविवरणग्रन्थे ॥ २९ ॥ तत्वविवेके तूक्तं सत्त्वेन रजस्तमोभ्यां च । एकैव मूलयोनिर्मायाऽविद्या च भवतीति ॥ ३०॥ एका मूलप्रकृतिर्विक्षेपावरणशक्तिभेदेन । मायाऽविद्येति भिदा यातीत्युपपादितं क्वचिदन्थे ॥ ३१ ॥
mmmmmmmmmmmm मायाविद्ययोः स्वरूपं दर्शयति--मूलेति । अनाद्यनिर्वाच्या चित्संबधिनी मूलप्रकृतिर्माया । तस्या एवैकदेशो विक्षेपावरणशक्तिमानवियेत्यर्थः ॥ २९॥
'माया चाविद्या च स्वयमेव भवति' इति श्रुतेः सत्त्वरजस्तमोगुणास्मिकैव मूलप्रकृतिः प्रधानभूतेन सत्वेन माया, प्रधानमृताभ्यां रजस्तमोभ्यामविद्या च भवतीति मायाविद्यास्वरूपं मतान्तरेण दर्शयति-तस्वेति ॥ ३० ॥
एकैव मूलप्रकृतिर्विक्षेपशक्तिप्राधान्येन माया, आवरणशक्तिप्राधान्येनाऽविधेति मतान्तरमाह-एकेति ॥ ३१ ॥
माया और अविद्याका स्वरूप दर्शाते हैं—'मूल०' इत्यादिसे ।
अनादि और अनिर्वाच्या चित्सम्बन्धिनी मूल प्रकृति माया कहलाती है। उसीका एकदेश जो विक्षेपशक्ति और आवरणशक्तिसे युक्त है, उसको अविद्या कहते हैं, ऐसा प्रकटार्थविवरण ग्रन्थमें कहा गया है ॥ २९ ॥
'तत्व.' इत्यादि । तत्त्वविवेक ग्रन्थमें तो 'माया चाऽविद्या च स्वयमेव भवति' (माया और अविद्या स्वयं ही होती हैं ) इस श्रुतिसे मूल प्रकृति-सत्त्वरजस्तमोगुणात्मिका मूल प्रकृति-ही सत्त्वगुणकी प्रधानतासे माया कहलाती है और रजोगुण तथा तमोगुणकी प्रधानतासे अविद्या कहलाती है, इस प्रकार माया
और अविद्याका स्वरूप दर्शाया है ॥ ३० ॥ ___ 'एका' इत्यादि । एक ही मूल प्रकृति अपनी विक्षेपशक्तिकी प्रधानतासे माया कहलाती है और आवरणशक्तिकी प्रधानतासे अविद्या कहलाती है, ऐसा किसी ग्रन्थमें उपपादन किया गया है; अर्थात् २९वें श्लोकमें स्वयं मूलप्रकृतिको माया और विक्षेप और आवरण दोनों शक्तियोंसे युक्त उसके अंशको अविद्या कहा है और इस श्लोकमें मूल प्रकृति ही विक्षेपशक्तिकी प्रधानतासे माया और आवरणशक्तिकी प्रधानतासे अविद्या कही गई है। इस प्रकार दोनों मतोंमें विशेष है ॥ ३१ ॥
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