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भाषानुवादसहिता
१२. धारावाहिकद्वितीयादिज्ञानवैफल्य परिहारवादः
नन्वेवं सति धारास्थले द्वितीयादिसफलता न स्यात् । प्रथमज्ञानेनैवाssवरणाभिभवस्य सिद्धत्वात् ॥ ७४ ॥
प्रथम स्तबक ]
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भवति । सन्निपातहरौषधेनैकदोषनाशे दोषान्तराणामिवेति मतान्तरमाह - सन्ततमेवेति ॥ ७३ ॥
एतन्मते धारावाहिकस्थले प्रथमज्ञानेनैव नाशतिरस्काराभ्यां सर्वावरणाभिभवस्य सिद्धत्वात् द्वितीयादिज्ञानानां विफलता स्यादिति शङ्कते - नन्विति ॥७४॥ ज्ञानकाल में अन्यका तिरोभाव रहता है; ऐसा मतान्तर कहते हैं - ' सन्ततमेव ' इत्यादि ।
सदा सब अज्ञान विषयके आवारक ही होते हैं । जिस समय एक ज्ञानसे एक अज्ञानका विनाश होता है, उस समय दूसरे अज्ञानोंका तिरस्कार होता है अर्थात् जैसे सन्निपातका नाश करनेवाले औषधसे एक दोषका नाश हो जानेपर दूसरे दोषोंका तिरस्कार ( तिरोभाव ) हो जाता है, वैसे ही यहाँपर भी समझना चाहिए ॥ ७३ ॥
शङ्का करते हैं - ' नन्वेवं सति' इत्यादिसे ।
इस मतमें अर्थात एक ज्ञानसे एक अज्ञानका नाश होता है और दूसरोंका तिरोभाव होता है, इस मतमें धारावाहिकस्थल में द्वितीयादि ज्ञानोंकी सफलता नहीं होगी, क्योंकि जब प्रथम ज्ञानसे ही एक अज्ञानका नाश और अन्योंका तिरस्कार हो जाता है, तब सब आवरणोंका अभिभव सिद्ध ही है ।। ७४ ॥
( १ ) धारावाहिक ज्ञानका अर्थ है -- ज्ञानकी धारा अर्थात् कुछ काल तक चलनेवाला एक विषयका ज्ञान । उदाहरणार्थ -- जहां दस मिनट तक बराबर अनुस्यूतरूपसे किसी एक व्यक्तिको घटका ज्ञान होता है, वहां प्रत्येक क्षण में घटाकार वृत्ति अलग अलग हुआ करती है, अतः उन वृत्तियोंसे व्यक्त हुआ चैतन्यरूप ज्ञान भी वृत्तिके भेदसे भिन्न होगा, इस परिस्थितिमें उक्त दस मिनट तक होनेवाला घटज्ञान एक नहीं है, किन्तु तबतक होनेवाली अनेक घटज्ञानों की एक धारा ( प्रवाह ) है, ऐसा अवश्य मानना होगा । इस विषय में शङ्का यह होती है कि जब आप यह मानते हैं कि एक ज्ञानसे ( घटके ज्ञान से ) एक ही अज्ञानका ( एक ही घटके अज्ञानका ) नाश होता है और अन्य अज्ञानोंका तिरोभाव हो जाता है, तब उक्त दस मिनट तक होनेवाली ज्ञानकी धाराके प्रथम ज्ञानसे ही अज्ञानका नाश और अन्य अज्ञानोंका तिरोभाव हो जायगा, फिर ज्ञानप्रवाह में दूसरा, तीसरा आदि सब ज्ञान व्यर्थ हैं, यह शङ्काका भाव है ।
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