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सिद्धान्तकल्पवल्ली [अवस्थाज्ञानसादित्वानादित्ववाद
आवृण्वन्ति घटादिकमज्ञानानि क्रमेण न तु युगपत् । यद्यद्यदावृणोति ज्ञानात्तत्तनिवर्त्यमित्यपरे ॥ ७२ ॥ संततमेव समस्ताज्ञानान्यावारकाणि विषयस्य । ज्ञानेनैकविनाशे भवति परेषां तिरस्क्रियेत्यन्ये ॥ ७३ ।।
प्रागभावो निवर्त्यते संशयादिनिवृतिविषयावभासश्च भवति, तथैकेन ज्ञानेनैकाज्ञानं निवर्तते संशयादिनिवृत्तिविषयावभासश्चेत्यभिप्रेत्य केषांचिन्मतेन परिहरतिअत्रेत्यादिना ।। ७१ ॥
यावद्विशेषाभावकूटस्यैव संशयादिहेतुत्वेनैकेनाऽपि ज्ञानेन तत्कूटविघटने संशयाप्रसक्त्या प्रागभाववैषम्यात् आवृतप्रकाशायोगादेकावृतेऽन्यस्याऽनुपयोगाच । अतोऽज्ञानानि क्रमेण घटादिकमावृण्वन्ति, न तु एकदा। तथा च यदा यद्यदज्ञानमावृणोति तदा ज्ञानात्तत्तदज्ञानमेव निवर्तत इत्यभिप्रेत्य मतान्तरमाहआवृण्वन्तीति ॥ ७२ ॥
अज्ञानस्य सविषयत्वस्वाभाव्यादुत्सर्गतः सर्वतः सर्वदैव सर्वाज्ञानानि विषयस्याऽऽवारकाणि भवन्ति । तथा च ज्ञानेनैकाज्ञाननाशेऽन्येषां ज्ञानकाले तिरस्कारो
ही प्रागभावकी निवृत्ति होती है और उससे संशयादिकी निवृत्ति और विषयावभास हो जाता है, वैसे ही एक ज्ञानसे एक अज्ञानके निवृत्त होनेसे संशयादि की निवृत्ति और विषयावभास होता है ।। ७१ ॥
जितने विशेषाभाव हैं, उनके समूहमें ही संशय आदिके प्रति हेतुता है, अतः जब एक ज्ञानसे ही उस समूहका विघटन (नाश ) हो जायगा, तब संशय आदिका प्रसंग नहीं हो सकता; अतः पूर्वोक्त प्रागभावका दृष्टान्त विषम होनेसे आवृतका प्रकाश नहीं बन सकता और एक आवृतमें अन्यका उपयोग भी नहीं है, इसलिए मतान्तरोंका उपन्यास करते हैं-'आवृण्वन्ति' इत्यादि।
अज्ञान घट आदिका क्रमसे आवरण करते हैं; एक साथ नहीं करते; अतः जिस समयमें जो जो अज्ञान आवरण करता है, उस समयमें ज्ञानसे उस अज्ञानकी निवृत्ति होती है ॥ ७२ ॥
अज्ञानका सविषयत्व होना स्वभाव है अर्थात् अज्ञान किसी विषयका अवलम्बन करके ही अपना अस्तित्व रखता है। अतः सब जगह सब अज्ञान सदा विषयोंके आवारक होते हैं; जब ज्ञानसे एक अज्ञानका नाश होता है, तब
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