________________
सिद्धान्तकल्पवल्ली [ अवस्थाज्ञानसादित्वानादित्ववाद वृत्त्या संसृष्टं यद्विषयावच्छिन्नचैतन्यम् । तदनावारकतास्वाभाव्यं सेत्यामनन्त्येके ॥ ६८॥ मूलाज्ञानस्यैवाऽवस्थाभेदात्मकं किश्चित् । अज्ञानान्तरमास्ते तस्मात्तन्नाश एव सेत्यन्ये ॥ ६९ ॥
अज्ञानस्यैकांशेन नाशे तद्विषये सकृदवगते समयान्तरेऽप्यावरणाभावप्रसन्नात् , निष्क्रियस्य वेष्टनापसरणयोरसंभवाच्च न यथोक्तरूपोऽभिभवः, किन्तु तत्तदाकारवृत्तिसंसृष्टावस्थविषयावच्छिन्नचैतन्यानावारकत्वस्वाभाव्यमेवाऽभिभूतिरिति मतान्तरमाह-वृत्त्येति ॥ ६८ ॥
शुद्धब्रह्ममात्रावारकं मूलाज्ञानम् । तस्यैवाऽवस्थाभेदरूपं विषयावच्छिन्नचैतन्यावारकमज्ञानान्तरमस्तीति तन्नाश एवाऽभिभव इति मतान्तरमाह-मूलाज्ञानस्येति । एवं च एकज्ञानेनाऽज्ञाननाशे ज्ञानान्तरवैयर्थ्यांपत्त्या तन्नाश्यानेका. ज्ञानान्यभ्युपगम्यन्त इति भावः ॥ ६९ ।।
यदि (घटादिज्ञानसे) अज्ञानके एक देशका नाश मानें, तो एकबार घटादि विषयके अवगत होनेपर दूसरे समयमें भी उन घटादिमें आवरणाभावका प्रसङ्ग होगा; और निष्क्रिय अज्ञानके वेष्टन और अपसरण दोनों नहीं हो सकते, अतः पूर्वोक्तरूप अभिभव मानना सङ्गत नहीं होता, इसलिए प्रकारान्तरसे अज्ञाना. परणाभिभवका निरूपण करते हैं-'वृत्या' इत्यादिसे ।
वृत्तिसे सम्बद्ध विषयावच्छिन्नका अनावारकत्वरूप स्वभाव ही आवरणाभिभव है, ऐसा कई एक कहते हैं, अर्थात् तत्तत् आकारवाली वृत्तिसे संसृष्ट अवस्थावाला जो विषयावच्छिन्न चैतन्य है, उसके अनावारकत्व स्वभावको ही आवरणाभिभूति समझना चाहिए, ऐसा मतान्तर कहते हैं ॥ ६८ ॥
शुद्ध ब्रह्मका आवारक जो मूलाज्ञान है; उसीकी एक अवस्था विषयावच्छिन्न चैतन्यकी आवारक अविद्या ( अज्ञान) है, उसके नाशको ही यहाँ आवरणाभिभव समझना चाहिए; ऐसा दूसरा मत दिखलाते हैं-'मूलाज्ञान०' इत्यादिसे ।
मूलाज्ञानकी (शुद्ध ब्रह्मके आवारक अज्ञानकी) ही एक अवस्था अज्ञानान्तर है, उसका नाश ही प्रावरणाभिभव है, ऐसा कई मानते हैं । एवञ्च एक ज्ञानसे अज्ञानका नाश होनेपर अन्य ज्ञानकी व्यर्थतापत्ति न हो, इसलिए अनेक अज्ञान भी माने जाते हैं ॥ ६९ ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com