________________
सिद्धान्तकल्पवल्ली
न्धवाद
विषयविषयित्वमेवेत्याहुः केचित् परे तु जीवस्य । तादात्म्यापनाया वृत्तेः संयोग एवेति ॥ ६१ ॥ स्वावच्छेदकवृत्तेविषयैरुन्मिपति संयोगे । तजन्यः संयोगो जीवस्याऽस्तीति जगुरेके ॥ ६२ ॥
स्वाभाविकविषयविषयिभाव एव सम्बन्ध इति मतेन समाधत्ते-विषयेति । नहि विषयविषयित्वं सम्बन्धः, अनुमित्यादौ वृत्त्यनिर्गमेऽपि बाह्यवयादिविषयतासत्त्वेन बहिनिर्गमनकल्पनावैयापत्तेः। किन्तु जीवतादात्म्यापन्नाया मनोवृत्तेविषयैः संयोगो जीवस्याऽपि तद्द्वारा परम्परासम्बन्धो लभ्यत इति स एव चिदुपरागोऽभिमत इति मतान्तरमाह-परे वित्यादिना ॥ ६१ ॥ __साक्षात् प्रमातृसम्बन्धे सत्येव सुखादेरापरोक्ष्यदर्शनात् प्रमात्रवच्छेदिकाया वृत्तेविषयैः संयोगे तदवच्छेदेन प्रमातुर्जीवस्याऽपि संयोगजसंयोगोऽस्तीति स एव चिदुपराग इति मतान्तरमाह-स्वावच्छेदकेति । कारणाकारणसंयोगात् कार्याकार्यसंयोगवत् कार्याकार्यसंयोगात् कारणाकारणसंयोगस्याऽप्यभ्युपगमादिति भावः ॥ ६२॥
कुछ लोग उक्त प्रश्नका उत्तर यों करते हैं-'विषय०' इत्यादिसे ।
कई एक तो विषय और चैतन्यका स्वाभाविक विषयविषयिभाव ही सम्बन्ध है। ऐसा कहते हैं और दूसरे कुछ लोग यों कहते हैं कि विषयविषयिभाव सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि अनुमिति- आदिमें वृत्तिका निर्गम न होनेपर भी बाह्य वह्नि आदिको विषयता होती है। इससे बहिनिर्गमनकी कल्पना ही व्यर्थ हो जायगी, किन्तु जीवतादात्म्यापन्न मनोवृत्तिका विषयोंके साथ संयोग होनेसे उस वृत्ति के द्वारा जीवका भी परम्परासे सम्बन्ध प्राप्त होता है, यही चिदुपराग अभिमत है ।। ६१ ॥
साक्षात् प्रमाताका सम्बन्ध होनेपर ही सुखादिका अपरोक्षानुभव होनेसे प्रमाताकी अवच्छेदिका जो वृत्ति है; उस वृत्तिका विषयोंके साथ संयोग होनेपर तदवच्छिन्न प्रमाता (जीव) का भी उस विषयके साथ संयोगज संयोग होता है; वही चिदुपराग है, यह कहनेवालेका मत कहते हैं-'स्वावच्छेदक०' इत्यादिसे ।
प्रमाताकी अवच्छेदकभूत वृत्तिका विषयोंके साथ संयोग होनेपर उस वृत्तिके संयोगसे जन्य वृत्त्यवच्छिन्न जीवका भी संयोग होता है; ऐसा अन्य कहते हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com