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भाषानुवादसहिता
वाचस्पतिमिश्रास्तु स्वत एव ब्रह्म जगदुपादानम् 1सहकारिण्यपि माया न कार्यमनुगच्छतीत्याहुः ॥२६॥ मायैवोपादानं ब्रह्म तदाधारभूततया । गौण्योपादानमिति प्राहुर्मुक्तावलीकाराः ॥ २७ ॥
प्रथम स्तवक ]
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माया तु द्वारकारणम् । तस्या अपि कार्येष्वनुवृत्तिः संभवति, मृच्छ्लक्ष्णताया घटादावनुवृद्धिदर्शनादिति मतान्तरमाह - संक्षेपाचार्यास्त्विति ॥ २५ ॥
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जीवाश्रितमाया विषयीकृतं ब्रह्म स्वत एव जाड्य श्रयप्रपञ्चाकारेण विवर्तमानतयोपादानम् । माया तु सहकारिमात्रम् । तथाविधाऽपि न कार्यमनुगच्छतीति मतान्तरमाह – वाचस्पतीति । माया न द्वारकारणम्, अनुपादानगतत्वात् । किन्तु सहकारिमात्रम् । अतो न कार्यमनुगच्छतीति भावः ॥ २६ ॥
अत्र मतद्वयेऽपि 'मायां तु प्रकृतिं विद्यात्' इत्यादौ प्रकृतिशब्दो गौणः मानना युक्त होता है, ऐसा माननेवालेका मत प्रदर्शित करते हैं - 'संक्षेपाचार्या. ' इत्यादिसे ।
संक्षेपशारीरककार सर्वज्ञाचार्य यों कहते हैं कि ब्रह्म ही अशेष जगत्का उपादान है, और माया तो द्वाररूपसे उपादान कारण है, इसलिए कार्यों में उसकी भी अनुवृत्ति हो सकती है; जैसे कि मृत्तिकाकी लक्ष्णताकी घटादिमें अनुवृत्ति होती है ॥ २५ ॥ इस विषय में वाचस्पतिमिश्रका मत दिखलाते हैं - ' वाचस्पति०' इत्यादिसे ।
[ सर्वज्ञ महामुनिने संक्षेपशारीरक में मायाका विषय और आश्रय ब्रह्मको ही कहा है, क्योंकि उनका कहना है - 'अहं ब्रह्म न जानामि' इस वाक्यमें ' न जानामि ' इतना अज्ञानका आकार है, उसमें अज्ञानका विषय शुद्ध ब्रह्म है और अहंतादात्म्यापन्न ब्रह्म आश्रय है । जीव स्वयं अविद्याका कार्य होनेसे उसका न तो आश्रय हो सकता है और न विषय हो सकता है । इस विषय में वाचस्पतिमिश्रका ऐसा मत है कि अज्ञानका विषय ब्रह्म है और आश्रय जीव है, क्योंकि 'अहं ब्रह्म न जानामि ' इत्यादि प्रतीतिमें अज्ञान अहंपदोपात्त जीवका आश्रित होकर ब्रह्मको विषय करता है । अतः इस मतके अनुसार कहते हैं - ] जीवाश्रित मायाका ( अज्ञानका ) विषयीभूत जो ब्रह्म है, वही स्वयं जड़ प्रपंचके आकार में विवर्त्तमान होकर उपादान बनता है, माया तो केवल सहकारिणी है । सहकारिणी होनेपर भी वह कार्यमें अनुगत नहीं होती अर्थात् माया द्वार कारण नहीं है, क्योंकि वह उपादानमें नहीं रहती, किन्तु सहकारी कारणमात्र है, इससे मायाका कार्यों में अनुगम नहीं होता ।। २६ ।। इस विषय में वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावलीकारका मत कहते हैं— 'मायैव' इत्यादिसे ।
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