________________
सिद्धान्तकल्पवल्ली
[ कारणत्ववाद
-
~
~
~
~
~
~
~
~
अथ तत्वनिर्णयकृतः परिणामितया विवर्तमानतया । माया ब्रह्म च विश्वोपादानं श्रुतित इत्याहुः ॥ २४ ॥ संक्षेपाचार्यास्तु ब्रह्मैवाऽशेषजगदुपादानम् । द्वारतया मायायाः कार्येष्वनुवृत्तिरित्याहुः ॥ २५ ॥
एव स्वमसृष्टगजादिवत् स्वस्मिन्नेवेश्वरत्वादिसर्वकल्पकत्वेन सर्वप्रपञ्चोपादानमिति मतान्तरमाह-स्वस्मिन्नेवेति ॥ २३ ॥
ननु उक्तरीत्या ब्रह्मण एव जगदुपादानत्वे 'मायां तु प्रकृति विद्यात्' इत्यादिश्रुतेः का गतिरित्याशङ्कय श्रुतिद्वयानुरोधात् कार्ये सत्ताजाड्योभयधर्मानुवृत्तिदर्शनाच ब्रह्म विवर्वोपादानं माया तु परिणाम्युपादानमिति मतेनोत्तरमाह-अथेति । अत एव स्वाभिन्नकार्यजनकत्वमुपादानलक्षणमुभयसाधारणमिति भावः ॥ २४ ॥
ब्रह्मैव सकलजगदुपादानम् ; कूटस्थस्य स्वतः कारणत्वायोगेन मायाद्वारा ।
जीवसे यह सकल विचित्र प्रपञ्च उत्पन्न होता है' इत्यर्थक श्रुतिसे जीव स्वप्नसृष्ट गजादिकी नाई अपनेमें ईश्वरत्वादिकी कल्पना द्वारा सब प्रपञ्चका उपादान बनता है, ऐसा अन्य मतवादी कहते हैं ॥ २३॥
उक्त रीतिसे ब्रह्म ही यदि जगत्का उपादान कारण माना जाय, तो 'मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्' (मायाको प्रकृति-उपादान–जानना और मायी महेश्वरको समझना ) इत्यादि श्रुतिकी क्या गति होगी ? ऐसी आशंका करके दोनों श्रुतियोंके अनुरोधसे और कार्यमात्रमें सत्ता और जाड्य दोनों धर्मोंकी अनुवृत्ति दीखती है, इससे ब्रह्मको विवर्तोपादान और मायाको परिणामी उपादान मानना चाहिए, इस मतसे उस शङ्काका उत्तर देते हैं-'अथ' इत्यादिसे ।। ___ तत्त्वनिर्णय ग्रन्थके कर्ताका मायाको विश्वका परिणामी उपादान और ब्रह्मको विवर्तोपादान मानना एवं मायाशबल ब्रह्मको विश्वका उपादानकारण मानना श्रुतिसम्मत है । अतएव (ऐसा माननेसे ) 'स्वाभिन्नकार्यजनकत्व' ( अपनेसे अभिन्न कार्यको उत्पन्न करना) ऐसा जो उपादानका लक्षण है, वह उभयसाधारण अर्थात् माया और ब्रह्म दोनोंमें साधारणरूपसे समन्वित होता है ।। २४ ॥
ब्रह्म ही सम्पूर्ण जगत्का उपादान है, परन्तु ब्रह्म स्वयं कूटस्थ तथा अविचालि अनपायोपजनविकारि अर्थात्-चलनादि क्रियारहित तथा वृद्धि, ह्रास एवं विकाररहित है, इसलिए ब्रह्ममें स्वतः उपादानकारणत्व नहीं बनता, अतः माया द्वारा उपादान
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com