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सिद्धान्तकल्पवल्ली
कर्तृत्ववाद] ५. कर्तृत्ववादः अथ कीगीश्वरस्य प्रपञ्चकर्तृत्वमिह केचित् । कार्यानुकूलभूतज्ञानचिकीर्षादिमत्त्वमिति ॥ ४८ ॥ अन्ये तु तदनुकूलज्ञानाश्रयतैव कर्तृतेत्याहुः । इतरे तु तदनुकूलस्रष्टव्यालोचनाश्रयत्वमिति ॥ ४९ ॥
इत्थं लक्षणोपोद्घाते लक्षणैकदेशमुपादानत्वं विचार्य तदेकदेशं कर्तृत्वं कीहशमिति प्रश्ने 'तदैक्षत', 'सोऽकामयत', 'तदात्मानं स्वयमकुरुत' इति श्रवणात् न्यायमत इव कार्यानुकूलज्ञानचिकीर्षाकृतिमत्त्वं तदिति केषांचिन्मतेनोत्तरमाहअथ कीगिति । ज्ञानं चिकीर्षा च ते आदी यस्याः कृतेः सा ज्ञानचिकीर्षादिः, कार्य प्रत्यनुकूलभूता या ज्ञानचिकीर्षादिः तद्वत्वं कर्तृत्वमित्यर्थः ॥ ४८॥
इच्छाकृत्योरपि कार्यत्वेनाऽऽत्माश्रयात् , तयोरिच्छाकृत्यन्तरेण कर्तृत्वं चेत् , अनवस्थानात् । कार्यानुकूलज्ञानवत्त्वमेव ब्रह्मणः कर्तृत्वमिति मतान्तरमाह- अन्ये विति । न च ज्ञानस्यैष प्रसङ्गः, तस्य ब्रह्मरूपत्वेनाऽकार्यत्वादिति भावः । न च कार्यानुकूल. __ इस प्रकार लक्षणके उपोद्धातमें लक्षणके एकदेशरूप उपादानकारणत्वका विचार दिखलाकर उसके एकदेशभूत कर्तत्वको कैसा मानना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होनेपर 'तदेक्षत' ( उसने ईक्षण किया ), 'सोऽकामयत' ( उसने कामना की), 'तदात्मानं स्वयमकुरुत' ( उसने अपने आपको स्वयं बना लिया) इत्यादि श्रुतियोंसे न्यायमतके अनुसार कार्यानुकूल ज्ञान, चिकीर्षा और कृति–इन तीनोंसे युक्त होना ही कर्तृत्व है, ऐसा किसीका मत लेकर उक्त प्रश्नका उत्तर देते हैं—'अथ कीडग्०' इत्यादिसे ।
ईश्वरका जगत्कर्तृत्व किस प्रकारका है ? इस विषयमें कई एक (न्यायमतका अभिनिवेश करनेवाले) कहते हैं कि कार्यके प्रति अनुकूलभूत ज्ञान, चिकीर्षा और कृति-ये तीन जिसमें हों, उसीमें कर्तृत्व हुआ करता है ॥ ४८ ॥
इसी विषयमें मतान्तर दिखलाते हैं-'अन्ये तु' इत्यादिसे।
अन्य मतवाले तो यों कहते हैं कि इच्छा और कृति भी कार्य ही हैं, अतः आत्माश्रय दोष होगा । यदि उनके कर्तृत्वका अन्य इच्छा और कृतिसे लक्षण करें तो अनवस्थापत्ति होगी, अतः कार्यानुकूलज्ञानवत्त्व ही ब्रह्मका कर्तृत्व है, ऐसा मानना चाहिये । यदि कहें कि ज्ञानमें भी तो यही प्रसङ्ग है अर्थात् इच्छा और कृतिकी नाई ज्ञान भी कार्य क्यों न माना जाय ? तो इसपर हम कहते हैं कि
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