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प्रथम स्तवक ]
भाषानुवादसहिता
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अन्ये तु संगिरन्ते तत्तदविद्याविनिर्मितं विश्वम् । प्रतिपुरुषमेव भिन्नं भवति यथा शुक्तिरजतमिति ॥ ४६॥ जीवगताज्ञानचयाद्भिन्ना मायेश्वराश्रिता जगतः । योनिर्जीवाविद्यास्त्वावरणायेति जगुरेके ॥४७॥
चैकतन्तुनाशे महापटस्येव तत्साधारणजगतो नाशे शेषतन्तुभिः पटान्तरस्येव जगदन्तरस्योत्पत्तिरिति भावः ॥ ४५ ॥
तत्तदज्ञानकृतप्रातिभासिकरजतादिवत् तत्तदविद्याकृतः प्रपञ्चः प्रतिपुरुषं भिन्न एवेति मतान्तरमाह-अन्ये विति । शुक्तिरजते त्वया यद् दृष्टं तदेव मयाऽपीत्यैक्यप्रत्ययो भ्रममात्रमिति भावः ॥ ४६ ॥
जीवाश्रिताविद्यानिवहाद्भिन्नेश्वराश्रिता मायैव प्रपञ्चस्य कारणम् । जीवानामविद्यास्त्वावरणमात्रे प्रातिभासिकशुकिरजतादिविक्षेप इवोपयुज्यन्त इति मतान्तरमाह-जीवगतेति ॥ ४७ ॥
यों कई एक अपने मतका समर्थन करते हैं। जैसे तन्तुओंसे निर्मित महापटके एक तन्तुका नाश होनेपर भी शेष तन्तुओंसे पटान्तरकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक अविद्याकी निवृत्तिसे तत्साधारण जगत्का नाश होनेपर भी शेष अविद्याओंसे अन्य जगत्की उत्पत्ति मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं है ॥ ४५ ॥ ___ यह विश्व प्रत्येक जीवकी अविद्याका कार्य है, यो माननेवालोंका मत कहते हैं'अन्ये तु' इत्यादिसे।
जैसे शुक्तिरजत (अर्थात् शुक्तिमें प्रातिभासिक रजत ) उन उन जीवोंकी अविद्यासे निर्मित होता है, वैसे ही तत्-तत् अविद्याकृत प्रतिपुरुष प्रपञ्च भिन्न ही है और 'शुक्तिरजतमें तुमने जो देखा, वही मैंने भी देखा' ऐसी जो ऐक्यप्रतीति होती है, वह भ्रममात्र है, ऐसा अन्य कहते हैं ॥ ४६ ॥
इसी विषयमें मतान्तर कहते हैं-'जीवगता०' इत्यादिसे । ___ जीवाश्रित अविद्याओंका जो समुदाय है, उससे भिन्न ईश्वराश्रित जो दूसरी माया है, वही जगत्की (प्रपञ्चकी) योनि ( उत्पत्तिकारण) है; और जीवाश्रित जो अविद्याएँ हैं, वे तो शुक्ति में प्रातिभासिक रजतादि विक्षेपकी नाई आवरणमात्रमें ही उपयुक्त होती हैं, ऐसा कई एक कहते हैं । ४७ ॥
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