Book Title: Siddhant Kalpvalli
Author(s): Sadashivendra Saraswati
Publisher: Achyut Granthmala

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Page 40
________________ प्रथम स्तवक ] भाषानुवादसहिता AJAN स्वस्मिन्नेव स्वमवदीशानत्वादिसर्वकल्पनया। जीवः सर्वविकारोपादानमिति ब्रुवन्त्यन्ये ॥ २३ ॥ ammmmmmmmmm जगदुपादानत्वे कास्न्येन जगदाकारपरिणामे जगद्व्यतिरेकेण ब्रह्माभावप्रसङ्गः । तदेकदेशेन तदुक्को निरवयवत्वश्रुतिव्याकोप इत्याक्षेपपरिहारायाऽऽश्रिते विवर्तवादे तनिर्वतनार्थम् 'आत्मनि चैव विचित्राश्च हि' इति सूत्रेण जैवस्वमसर्गस्य सिद्धवस्कारादिति भावः ॥ २२ ॥ 'पुरत्रये क्रीडति यश्च जीवस्ततस्तु जातं सकलं विचित्रम्' इति श्रुतेर्जीव अन्यमतावलम्बी यों कहते हैं कि जितना व्यवहारसिद्ध विश्व-प्रपञ्च-है, उसका उपादान तो ब्रह्म ही है; और प्रातिभासिक प्रपञ्चका जीव उपादान है। ब्रह्मको जगत्का उपादान कहने में ब्रह्म जगत्का परिणामी उपादान है, ऐसा अभिप्राय नहीं है, क्योंकि यदि ब्रह्मका जगदाकार परिणाम हो, तो प्रश्न होगा कि क्या समग्र ब्रह्म जगदाकारमें परिणत होता है या उसका एकदेश ? इसमें प्रथम पक्ष युक्त नहीं है, क्योंकि समग्र ब्रह्मके जगदाकारसे परिणत होनेपर तो जगतसे अतिरिक्त ब्रह्मके अभावका प्रसङ्ग आ जायगा । द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि यदि एकदेशसे परिणाम मानेंगे तो ब्रह्मको निरवयव कहनेवाली श्रतिसे विरोध होगा, इसलिये उक्त प्रकारके आक्षेपका परिहार करनेके लिए विवर्त्तवादका आश्रय लिया गया है। उसकी सिद्धिके लिए 'आत्मनि चैवं विचित्राश्च हि' (ब्र० सू० २ । १।२८) इस सूत्रसे स्वप्नसृष्टि जीवकत का है, ऐसा सिद्ध किया है । इस सूत्रमें अकेले ब्रह्ममें स्वरूपका उपमर्दन हुए बिना अनेक आकारकी सृष्टि कैसे हो सकती ? ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्वप्नद्रष्टा एक ही आत्मामें, स्वरूपका उपमर्दन हुये बिना, अनेकाकार सृष्टि श्रुतिमें कही गई है-'न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ रथान रथयोगान पथः सृजते' (बृ० ४।३।१०) ( स्वप्नमें न तो रथ हैं, न रथमें जोते जानेवाले घोड़े हैं, न मार्ग हैं, तो भी रथकी, रथमें जोते जानेवाले घोड़ोंकी और मार्गकी सृष्टि करता है ) अपि च देवादिमें और मायावी पुरुषोंमें अपने स्वरूपका जरा भी उपमर्द हुए बिना हस्ती, अश्व आदि अनेक प्रकारकी विचित्र सृष्टि देखनेमें आती है, वैसे ही एक ही ब्रह्ममें, स्वरूपका किञ्चिन्मात्र भी उपमर्दन हुए बिना, अनेकाकार सृष्टि होने में किसी प्रकारकी अनुपपत्ति नहीं है ॥ २२॥ जीव ही सब प्रपञ्चका उपादान है, यों माननेवालेका मत दिखलाते हैं'स्वस्मिन्' इत्यादि। 'जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीन पुरोंमें जो जीव क्रीडा कर रहा है, उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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