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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[जीवैकत्वनानात्ववाद
. तेषु च केचिदवोचन् ब्रह्माश्रयविषयमेकमज्ञानम् ।
अंशेन तस्य नाशे मुक्तिर्भवतीति तद्वयवस्थेति ॥ ४१ ॥ हृदयग्रन्थिनियम्योऽविद्यासंसर्गलक्षणो बन्धः । हृदयग्रन्थिविनाशे विनश्यतीति व्यवस्थिति केचित् ॥४२॥
जीवनानात्वमाश्रित्य तद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्' इति श्रुतिदर्शितबन्धमुक्तिव्यवस्थितिं प्रतिपन्नानां केषांचिन्मतमाह-इतरे त्विति ॥४०॥ ___एकमेवाऽज्ञानं ब्रह्माश्रयविषयकम् , तस्य च तांस्तान् जीवान् प्रति ब्रह्मावारका भागा भिद्यन्ते । एकैकस्य जीवस्य ज्ञानोदयेनाऽज्ञाननाशे बन्धनिवृत्त्या मुक्तिरिति बन्धमुक्तिव्यवस्थामुपगच्छता जीवभेदवादिष्वेकदेशिनां मतमाह-तेषु चेति ।
न्यायैकदेशिमतेऽत्यन्ताभावस्य भूतलादिवृत्तित्वे प्रतियोगिसंसर्गाभाव इवाsविद्यायाश्चैतन्यवृत्तित्वे हृदयग्रन्थिनियामकः, 'भिद्यते हृदयग्रन्थिः' इति श्रुतेः ।
अन्य कई एक तो अन्तःकरणरूप उपाधिके प्रत्येक शरीरमें भिन्न होनेसे तदुपहित (अन्तःकरणरूप उपाधिसे युक्त) चेतनरूप जीवमें भी नानात्व ( अनेकत्व) मानकर 'तद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्' (देवोंमें से जो जो प्रतिबुद्ध (ब्रह्मसाक्षात्कारवान् ) हुए वे ही ब्रह्म हुए) इस श्रुतिमें प्रदर्शित बन्ध और मुक्तिकी व्यवस्था करते हैं ॥ ४० ॥
जीवनानात्ववादियोंमें एक अज्ञान माननेवाले एकदेशीका मत कहते हैं'तेषु च' इत्यादिसे।
उन नाना जीववादियोंमें भी कई एकने तो यों कहा है कि एक ही अज्ञान ब्रह्ममें रहता है और ब्रह्मको ही विषय करता है, किन्तु इस अज्ञानके उन उन जीवोंके प्रति ब्रह्मके आवारक (आवरण करनेवाले) अंश अनेक हैं, अतः एक एक जीवको ज्यों ज्ञानोदय होता है त्यों ही ज्ञानसे अज्ञानका नाश होनेपर बन्धनिवृत्तिसे मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार जीवभेदवादीके मतमें बन्ध और मुक्तिकी व्यवस्था हो सकती है ।। ४१ ॥ ___ न्यायके एकदेशीके मतमें जैसे अत्यन्ताभावको भूतलादिवृत्ति मानने में प्रतियोगिसंसर्गाभावको नियामक कहते हैं और जब भूतलमें प्रतियोगीके संसर्गका उदय होता है तब घटात्यन्ताभावका संसर्ग निवृत्त हो जाता है वैसे ही अविद्यालक्षण बन्ध विद्यासे निवृत्त होता है, ऐसा मतान्तर कहते हैं-'हृदय' इत्यादिसे ।
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