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प्रथम स्तवक
भाषानुवादसहिता
केचिदभिन्ननिमित्तोपादानत्वस्य लाभाय । इदमेकमेव लक्षणमस्येति प्राहुराचार्याः ॥१५॥ अस्योपादानत्वं विश्वाकृत्या विवर्तमानत्वम् । तत्र विवर्तः स्वासमसत्ताकतदन्यथाभावः ॥१६॥
उत्पत्तिस्थितिकारणत्वस्य निमित्तसाधारण्याद् लयकारणत्वमात्रोक्तावुपादानकारणत्वसिद्धावपि निमित्तत्वासिद्धरभिन्ननिमित्तोपादानत्वसिद्धयर्थमिदमेकमेव लक्षणमिति मतान्तरमाह-केचिदिति । अस्य जगत इत्यर्थः ।। १५ ॥ ____अत्रोपादानत्वं न परमाणुवदारम्भकत्वम् , एकत्वात् । नाऽपि प्रकृतिवत्परिणामित्वम् , अविकारित्वात् । किन्तु अविद्यया वियदादिविश्वाकारेण विवर्तमानत्वमित्याह-अस्येति । विवर्तलक्षणमाह-तत्रेति । विवर्त इति लक्ष्यनिर्देशः । उपादानविषमसत्ताकत्वे सति अन्यथाभावत्वं लक्षणमिति दिक् ॥ १६ ॥
यदि ब्रह्मको उत्पत्तिकारण और स्थितिकारण कहें, तो उसमें निमित्तकारणताका बोध होगा; और यदि ब्रह्मको केवल जगत्के लयका कारण कहें, तो उपादानकारणताकी सिद्धि होनेपर भी निमित्तकारणताकी सिद्धि नहीं होगी; इससे इन तीनोंको मिलाकर एक ही लक्षण माननेवाले आचार्योंका मत कहते हैं--'केचित्' इत्यादिसे। ___ इस जगत्का ब्रह्म अभिन्ननिमित्तोपादानकारण है, ऐसा सिद्ध करनेके लिए 'यतो वा इमानि' इस श्रुतिमें ब्रह्मके तटस्थलक्षणके जो तीन वाक्य कहे हैं, उन तीनोंको मिलाकर एक ही लक्षण मानना उचित है। ऐसा एक आचार्य कहते हैं ॥ १५॥
ऊपर ब्रह्म इस जगत्का उपादान कारण कहा गया है, सो जैसे परमाणुओंको घटादिके आरंभक मानते हैं, वैसे ब्रह्म आरंभक उपादान नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्म एक ही है; और प्रकृति की नाई ब्रह्म जनतका परिणामी उपादान कारण भी नहीं माना जा सकता; क्योंकि ब्रह्म अविकारी है। किन्तु अविद्यासे केवल आकाशादि प्रपञ्चा. कारसे विवर्तमान ही उपादान कारण है, ऐसा कहते हैं-'अस्योपादानत्वम्' इत्यादिसे।
ब्रह्मको जो जगत्का उपादानकारण कहा, वह विश्वाकारसे विवर्त्तमानरूप ही है, ऐसा समझना चाहिये । कारिकामें स्थित विवर्त्तपद लक्ष्यपरक है, इसका लक्षण ऐसा है--उपादानसे विषमसत्तावाला जो अन्यथाभाव यह विवर्त्त कहा जाता है। जैसे
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