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प्रथम स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
श्रवणमनुतिष्ठतः स्यादन्यत्रापि कचित्प्रवृत्तिरिति । तद्वयावृत्तिफलां परिसंख्यामभिदधति वार्तिकाचार्याः ॥ १२ ॥ वेदान्तवाक्यजन्यो बोधः श्रवणं तदत्र मानफले । का वा कथा विधीनामिति वाचस्पतिमतानुगाः प्राहुः ॥ १३ ॥
फलम् ; दृष्टव्य इति दर्शनार्थत्वेन स्तुतिमात्रम् , न श्रवणफलकीर्तनमिति भावः ॥११॥
ब्रह्मज्ञानार्थ वेदान्तश्रवणं कुर्वतश्चिकित्साज्ञानार्थ चरकादिग्रन्थे प्रवृत्तस्येव मध्ये मध्ये व्यापारान्तरेऽपि प्रवृत्तिः प्रसज्येत इति तन्निवृत्तिफलकः परिसङ्ख्याविधिरिति मतान्तरमाह-श्रवणमिति । 'ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति', 'तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथ' इति व्यापारान्तरप्रतिषेधश्रवणादिति भावः ॥ १२ ॥
. 'आत्मा श्रोतव्यः' इत्यात्मविषयत्वेन निबध्यमानमागमाचार्योपदेशजन्यमात्मज्ञानमेव श्रवणम्, न तु विचाररूपम् । तस्मादत्र प्रमाण फले श्रवणे न का निरास है और आगे जो 'द्रष्टव्यः' कहा गया है, वह तो दर्शनोपयोगी होनेसे श्रवणकी केवल स्तुति है, श्रवणके फलका कथन नहीं है ॥११॥
जैसे चिकित्साज्ञानके लिए चरक आदि ग्रन्थों में प्रवृत्त हुए पुरुषकी बीचबीचमें अन्य व्यापार में भी प्रवृत्ति हो जाती है, वैसे ही ब्रह्मज्ञानके लिए वेदान्तका श्रवण करनेवाले पुरुषकी भी बीच-बीचमें अन्यान्य व्यापारोंमें प्रवृत्तिका प्रसङ्ग हो सकता है, अतः उन व्यापारोंकी निवृत्तिके लिए यह 'श्रोतव्यः' इत्यादि परिसङ्ख्याविधि है, ऐसा मतान्तर दर्शाते हैं-'श्रवणम्' इत्यादिसे।
__ जो पुरुष वेदान्तश्रवण करता है, उसकी अन्यत्र भी कहीं प्रवृत्ति हो सकती है, उसकी व्यावृत्तिके लिए यह परिसंख्याविधि है। क्योंकि 'ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति' (ब्रह्ममें सम्यक् प्रकारसे स्थित अर्थात् ब्रह्मभावनारूढ़ पुरुष मोक्षको पाता है), 'तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथ' ( उस एक आत्माको ही जानो, दूसरी बातोंको छोड़ दो) इत्यादि अन्य अतिसे अन्य प्रवृत्तिका प्रतिषेध सुनते हैं; अतः यह श्रवणविधि परिसंख्याविधि है, ऐसा श्रीवार्तिकाचार्यका (श्रीसुरेश्वराचार्यका) मत है ॥ १२ ॥
'आत्मा श्रोतव्यः' इसमें आचार्यमुखसे आगमवाक्योपदेश द्वारा जनित जो आत्मविषयक ज्ञान है, उसको ही श्रवण कहना चाहिये, अन्य किसी विचाररूपको नहीं; इससे यहाँ प्रमाणफलभूत श्रवणमें कोई विधि नहीं है, ऐसा मतान्तर कहते हैं-'वेदान्त' इत्यादिसे।
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