________________
१२
सिद्धान्त कल्पवल्ली
अथ किमिहोपादानं शुद्धं किमुतेश्वरोऽथ जीवो वा । अत्राssहुः संक्षेपाचार्यास्तच्छुद्धमेवेति ॥ १७ ॥
[ कारणत्ववाद
विवरणमतैकनिष्ठा यः सर्वज्ञ इति वचनमवलम्ब्य । मायाशबलः सर्वविदीश्वर एवैतदित्याहुः ॥ १८ ॥
इत्थं लक्षणे निर्णीते लक्ष्यं पृच्छति – अथेति । जन्मादिसूत्रताध्ययोरुपादानत्वस्य ज्ञेयब्रह्मलक्षणत्वोक्तेः शाखाचन्द्रस्थले तटस्थलक्षणेनाऽपि लक्ष्यसिद्धिदर्शनाच्छुद्धमेवोपादानमिति संक्षेपशारीरकम तेनोत्तरयति - अत्रेत्यादिना । तथा । च 'आत्मन आकाशः संभूतः' इति श्रुतौ शबलवाचिन आत्मपदस्य शुद्धे लक्षणेति भावः ॥ १७ ॥
'यः सर्वज्ञः सर्ववित्' इत्यादिश्रुत्यवष्टम्भेन सर्वज्ञत्वादिविशिष्टो मायाशबलः रस्सीका जो सर्परूप अन्यथाभाव है, वह विवर्त्त है, क्योंकि यहाँ उपादान जो रस्सी है, उसकी व्यावहारिकी सत्ता है और सर्पकी प्रातिभासिकी सत्ता है, इससे रस्सी सर्पका विषमसत्तावाला कारण होनेसे विवर्त्तोपादान कहलाती है, वैसे ही संसारका ब्रह्म विवर्त्तोपादान है, क्योंकि उपादान ( अधिष्ठानभूत ) ब्रह्मकी पारमार्थिकी सत्ता होनेसे दोनोंकी समसत्ता नहीं है, किन्तु विषमसत्ता होनेसे विवर्त्तोपादानता सिद्ध होती है ॥ १६ ॥
लक्षणका निर्णय करके अब लक्ष्यका निर्णय करनेके लिए पूछते हैं - 'अथ ' इत्यादि ।
ऊपर जो उपादान कारण कहा गया है, उसपर प्रश्न उठता है कि क्या शुद्ध ब्रह्मको उपादानकारण मानते हो ? या ईश्वरको उपादानकारण मानते हो ? - अथवा जीवको उपादानकारण कहते हो ? इन तीनों विकल्पों में आचार्योंका मतभेद दर्शाते हैं - इस विषय में संक्षेपशारीरककार आचार्य सर्वज्ञमुनि कहते हैं कि शुद्ध ब्रह्मको ही उपादान कारण मानना उचित है, क्योंकि 'जन्माद्यस्य यतः ' इस सूत्रमें तथा इस सूत्र के भाष्यमें ज्ञेय ब्रह्ममें उपादानकारणत्वका प्रतिपादन किया गया है और शाखा चन्द्रादिस्थलों में तटस्थलक्षणसे भी लक्ष्यकी सिद्धि देखी जाती है, इस परिस्थितिमें शुद्ध ब्रह्ममें ही उपादानकारणताका अङ्गीकार करना चाहिये । इससे 'आत्मन आकाशः सम्भूतः ' ( आत्मासे आकाश उत्पन्न हुआ ) इस श्रुतिमें शबलब्रह्मत्राची जो आत्मपद है, उसकी शुद्ध ब्रह्ममें लक्षणा करनी चाहिये ॥ १७ ॥
इसी विषयमें विवरणकारका मत दर्शाते हैं - 'विवरण ० ' इत्यादिसे | विवरणकार श्रीचरण प्रकाशात्ममुनिके मतका अबलम्बन करनेवाले 'यः सर्वज्ञः
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com