________________
~
~
~
~
~
सिद्धान्तकल्पवल्ली
[ कारणत्ववाद ~~~~ ~ ~ ~~~~
~ २. कारणत्ववादः जगदुत्पत्तिस्थितिलयहेतुत्वं ब्रह्मणः श्रुतावुक्तम् । तल्लक्षणत्रयमिति प्रसाधयन्ति स्म कौमुदीकाराः ॥ १४ ॥
कोऽपि विधिः प्रवर्तते, अयोग्यत्वात् , शिलादौ क्षुरधारेव, इति मतान्तरमाहवेदान्तेति । एवं च श्रवण विध्यभावात् कर्मकाण्डविचारवद् ब्रह्मकाण्डविचारोऽप्यध्ययनविधिमूलक इति भावः ॥ १३ ॥
इत्थं जिज्ञासासूत्रविषयपरिशोधनात्मकं विधिवादं समाप्य इदानीं जन्मादिसूत्रविषयं परिशोधयितुमाह-जगदिति । 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते' इति श्रुतौ जगज्जन्मादिकारणत्वं ब्रह्मणो लक्षणमुक्तम् । तत्राऽप्येकैककारणत्व. मनन्यगामीति तल्लक्षणत्रयमित्यर्थः ॥ १४ ॥
भामती आदि महानिबन्धोंके प्रणेता वाचस्पतिमिन और उनके अनुयायी यों कहते हैं कि आचार्यमुखसे 'तत्त्वमसि' आदि वेदान्तवाक्योंके उपदेश द्वारा उत्पन्न हुआ बोध (आत्मज्ञान) ही श्रवण है, ऐसी परिस्थितिमें इस प्रमाणके फलरूप श्रवणमें किसी विधिको प्रवृत्ति नहीं हो सकती। जैसे शिला आदिमें क्षुरधारा कुछ नहीं कर सकती वैसे ही यहाँ भी विधि कुछ नहीं कर सकती अर्थात् ज्ञानमें विधिका होना अयुक्त है। उक्त रीतिसे जब श्रवणविधिका अभाव है तब कर्मकाण्डविचारकी नाई ब्रह्मकाण्डविचार भी अध्ययनविधिमूलक ही है, ऐसा मानना उचित है ॥ १३ ॥
इस प्रकार जिज्ञासासूत्रका जो विषय उसका परिशोधनरूप विधिवादका निरूपण करके अब जन्मादिसूत्रके विषयका परिशोधन करनेके लिए कहते हैं'जगत्' इत्यादिसे।
श्रुतिमें ब्रह्मको जगत्के जन्म आदिका कारण बताकर जो तटस्थ लक्षण कहा गया है, वहाँ–'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति' (जिससे ये भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिस निमित्तसे जीते हैं-अर्थात् प्राणधारणादि करते हैं तथा प्रयाणसमयमें जिसमें लीन होते हैं वह ब्रह्म है) इस श्रुतिमें कहा गया लक्षण एक नहीं है, किन्तु तीन हैं, क्योंकि इस वाक्यमें एक एक कारणके अनन्यगामी होनेके कारण प्रत्येक कारणको ब्रह्मलक्षण माननेसे ब्रह्मके ये तीन लक्षण हैं, ऐसा कौमुदीकारका मत है ॥ १४ ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com