Book Title: Siddhant Kalpvalli
Author(s): Sadashivendra Saraswati
Publisher: Achyut Granthmala

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Page 29
________________ vuwvvvvvvvvvw vwvvvvvvvvvvv सिद्धान्तकल्पवल्ली [विधिवाद १. विधिवादः इह खलु शान्त्यादिमतः प्रत्यग्ब्रह्मैक्यबोधसंपत्यै । आत्मा श्रोतव्य इति श्रुतो विधिः किंविधो ग्रहीतव्यः ॥ ५॥ तत्र प्रथमं समन्वयाध्यायार्थ दिदर्शयिषुरादौ साधनचतुष्टयसंपन्नस्याऽऽपातप्रतिपन्नब्रह्मात्मभावस्य तजिज्ञासोस्तज्ज्ञानाय 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इत्यत्र प्रतीयमानस्य विधेः प्रकारपश्नमाह-इहेति । तत्र त्रयो हि विधयः सन्ति-अपूर्वः, नियमः, परिसङ्ख्या चेति। तत्र विना वचनं कथमपि अप्राप्तस्य प्राप्तिफलको विधिरायः, यथा 'श्रीहीन् प्रोक्षति' इति । पक्षप्राप्तस्याऽप्राप्तांशस्य परिपूरणफलको विधिर्द्वितीयः, यथा 'त्रीहीनवहन्ति' इति । उभयत्रैकस्य उभयोर्वा एकत्र युगपत्प्राप्तौ अन्यतरनिवृत्तिफलको विधिस्तृतीयः, यथा अभिचयने ऽश्वगर्दभरशनयोग्रहणे युगपदनुष्ठेये सामर्थ्याविशेषेण युगपत्प्राप्तस्य यहाँ पहले समन्वयाध्यायका अर्थ दिखलानेके लिए आदिमें साधनचतुष्टय. सम्पन्न और जिसको ब्रह्मात्मभावकी आपाततः प्रतीति हुई हो, ऐसे जिज्ञासुको आत्मज्ञान हो, इसलिए 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' (अरे ! आत्मा द्रष्टव्य है, श्रोतव्य है, मन्तव्य है और निदिध्यासितव्य है) इस श्रुतिमें प्रतीयमान जो तव्यत्प्रत्ययबोध्य विधि है, वह किस प्रकारकी है ? ऐसा प्रश्न करते हैं-'इह खलु' इत्यादिसे। __विधियाँ तीन प्रकारकी हैं-अपूर्वविधि, नियमविधि और परिसङ्ख्याविधि । इनमें विधिवचनके बिना जिसकी किसी भी प्रकारसे प्राप्ति न हो, उसकी प्राप्ति जिससे फलित हो, वह अपूर्वविधि कहलाती है, जैसे-'ब्रीहीन प्रोक्षति' (पुरोडाश बनानेके लिए लाये गये धानोंका प्रोक्षण करे) यहाँ श्रीहिका प्रोक्षण 'व्रीहीन् प्रोक्षति' इस वचनके बिना सर्वथा अप्राप्त है, अतः यह अपूर्वविधि है। पक्षमें प्राप्तके अप्राप्त अंशका परिपूरण जिसका फल हो, उसको नियमविधि कहते हैं, यथा 'व्रीहीनवहन्ति' (धानोंको ऊखलमें डालकर मूसलसे कूटे) यहाँ जो छिलका निकालना है, वह नख आदि अन्य साधनोंसे भी हो सकता है, किन्तु ऐसा न करके मूसलसे कूट करके ही छिलका निकालना चाहिये, ऐसा नियम इस विधिसे फलित होता है, अतः यह नियमविधि कही गई है। जहाँ दोनोंमें एककी अथवा एकमें दोनोंकी एक समय प्राप्ति होती हो वहाँ दोमें से एककी निवृत्ति जिससे फलित हो, उस तृतीय प्रकारको परिसंख्याविधि कहते हैं, जैसे-अग्निचयनयागमें अश्व और गर्दभ दोनोंकी रशनाके (डोरीके ) एक समय ग्रहणका अनुष्ठान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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