Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
[ ३
भावार्थ
का अर्थ है सुमति का अर्थ है दुहित्य से ही सुमति, सुश्रुत और प्रवधि-तीन ज्ञान के धारी होते हैं ऐसे यथानाम तथा गुण श्री सुमतिनाथ भगवान हैं)। जो जिसके पास होता है बही वह अन्य को दे सकता है इस लोकोक्ति के अनुसार श्री सुमतिनाथ प्रभु भी समस्त भव्य प्राणियों को श्र ेष्ठ बुद्धि-सम्यक् ज्ञान प्रदान करते हैं । यहाँ श्राचार्य श्री सम्यक्ज्ञान को अभिलाषा से सुमति प्रभु को नमस्कार करते हैं पुनः जिनके शरीर की कान्ति प्ररूणोदय- सूर्य या कमल समान है उनको भी अपने कार्य के उदयार्थ नमस्कार करते हैं । अभिप्राय यह कि श्री जिनेन्द्र भगवान को स्मरण, नमन करने से सद्बोध और निर्विघ्न कार्य की सिद्धि होती है ॥ ४ ॥
श्री सुपार्श्व जिनाधीशं वन्देऽहं हरितप्रभम् । जितचन्द्रप्रभं चन्द्रप्रभं भक्त्या नमाम्यहम् ॥ ५ ॥
अन्वयार्थ - - - ( हरितप्रभं ) हरित वर्ण की कान्ति वाले ( जिनाधीशं ) जिनेन्द्र (श्री सुपार्श्व ) श्री सुपाएवं प्रभु को ( अहं वन्दे ) मैं नमस्कार करता हूँ। (जितचन्द्रप्रभं ) चन्द्रमा की कान्ति को जो जोत चुके हैं ऐसे ( चन्द्रप्रभं ) श्री चन्द्रप्रभु भगवान को ( अदम् भक्त्या नमामि ) मैं भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूँ ।
मात्रार्थं—–सुपार्श्वे तीर्थंकर का नाम गुणानुकूल है । 'सु' का अर्थ है सुकर, हितकर, कल्याणप्रद और पार्श्व' शब्द का अर्थ है सामीप्य साहचर्य अथवा सानिध्य । इस प्रकार जिनका सानिध्य समस्त जीवों के लिये सुखकारी है ऐसे श्री सुपार्श्वप्रभु को आत्मसुख-प्रतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति के लिये प्राचार्य श्री नमस्कार करते हैं। तदनन्तर अद्वितीय कान्ति के धारी चन्द्रप्रभु भगवान को प्राचार्य श्री नमस्कार करते हैं। श्री चन्द्रप्रभु चन्द्रमा से भी अधिक शीतल और सुखप्रद हैं। ज्योतिर्लोक का अधिपति जो चन्द्रमा है उसका विमान चन्द्रकान्तमणिमय होने से यद्यपि तापनाशक और सुखकर है पर वह मात्र शरीरदाह का कथञ्चित् निवारण करता है, कर्मों से संतप्त जीवों के अन्तस्ताप वा दुःख का निवारण करने की क्षमता उसमें नहीं है और आप श्री चन्द्रप्रभु के दर्शन से अन्तरङ्ग श्रीर बहिरङ्ग समस्त प्रकार के संताप स्वतः दूर हो जाते हैं । अभिप्राय यह है कि उद्योत नामकर्म के उदय से चन्द्रविमान रूप पृथ्वीकायिक जीव की जो अल्प कान्ति है उसका प्रापको अनुपम दिव्य कान्ति के समक्ष कोई स्थान नहीं है । इस प्रकार स्तुति करते हुए अद्वितीय कान्ति और गुणों के धारी श्री चन्द्रप्रभु तीर्थकर को आचार्य श्री नमस्कार करते हैं ॥ ५ ॥
पुष्पदन्तं लसत्कुन्दपुष्पवत् कान्तिसंयुतम् । शीतलं श्री जिनं वन्दे शीतलोत्तम वाग्भरम् ॥ ६ ॥
श्रन्वयार्थ -- (कुन्दपुष्पवत्) कुन्दपुष्प के समान ( कान्तिसंयुतम् ) कान्ति में संयुक्त ( लसत् ) शोभायमान ( पुष्पदन्तं ) श्री पुष्पदन्त तीर्थंकर को तथा ( शीतलोत्तमवाग्भरम् )