Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 18
________________ २] [ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद वन्दे श्री वृषभं देवं देवदेवैस्समचितम् । भुक्ति मुक्तिप्रदं नित्यं व्यक्तानन्त चतुष्टयम् ॥ २ ॥ श्रन्वयार्थ -- ( देवदेवं समचितम्) इन्द्रादि से सम्यक् प्रकार पूजित (भुक्ति मुक्तिप्रदम् ) सांसारिक सुख वैभव और चिरन्तन मुक्ति रूपी वैभव को देने वाले ( नित्यं व्यक्तानन्त चतुष्टयम् ) सदाकाल के लिये प्रकट हो चुके हैं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्त सुख और अनन्तवीर्य जिनके ऐसे (श्री नृपभं) मोक्षमार्ग प्रवर्तक आदि पुरुष प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभ देव (देव) भगवान को ( बन्दे ) नमस्कार करता हूँ । भावार्थ – आचार्य श्री सकलकोति महाराज ने इस श्लोक में इस लोक और परलोक सम्बन्धी समस्त वैभव को प्रदान करने वाले तथा परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति में कारण स्वरूप ऐसे यादि सृष्टा श्री प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान को नमस्कार किया । जिनके अनन्त चतुष्टय रूप गुण सदा के लिये प्रकट हो चुके हैं और जो समवशरण की अनुपम विभूति के साथ गन्धकुटी में विराजमान हैं ऐसे श्री आदिनाथ भगवान की स्तुति की है ॥ 2 ॥ अजितं जितकन्दर्प शंभवं सम्भवोज्झितम् । वन्देऽभिनन्दन भक्त्या त्रैलोक्य प्राणिशमंदम् ।। ३ ।। प्रन्वयार्थ - ( जितकन्दर्प) जीत लिया है काम विकार को जिन्होंने ऐसे श्री ( अजितं ) अजितनाथ भगवान को तथा ( सम्भावोज्झितम् ) उत्पत्ति-जन्म का जो नाश कर चुके हैं ऐसे ( शंभवम् ) श्री संभवनाथ तीर्थंकर को तथा (लोक्यप्राणिशर्मदम् ) तीनों लोक के समस्त प्राणियों को शान्ति सुख प्रदान करने वाले (अभिनन्दनं ) अभिनन्दननाथ भगवान को ( भक्त्यावन्दे ) मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ 1 भावार्थ-यहाँ पर आचार्य श्री ने अजितनाथ, संभवनाथ और अभिनन्दननाथ भगवान को नमस्कार किया है । जगत् विजयी काम विकार को भी जिन्होंने परास्त कर दिया है ऐसे श्री अजितनाथ भगवान हैं और जन्म तथा उससे सम्बद्ध बृद्धत्व और मरण के दुःखों से सदा के लिये जो मुक्त हो चुके हैं ऐसे श्री संभव नाथ भगवान हैं और तीन लोक के समस्त प्राणियों को हितकारी मार्गदर्शन करने वाले, जिनके पावन चरणकमलों में, मैं श्री सकलकोति मुनि, भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूँ इत्यादि वचनों से विशेष स्तुति की है। नमामि सुमत शान्ति भव्यानां सुमतिप्रदम् । प्रद्मप्रभजिनं वन्वे, पद्माभं पद्यलाञ्छनम् ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ -- ( भव्यानां) भव्य जीवों को ( शान्ति सुमतिप्रदम् ) शान्ति एवं श्रेष्ठ बुद्धि देने वाले ( सुमति) सुमतिनाथ भगवान को तथा ( पद्माभम् ) कमल के समान प्रता व की कान्ति के धारी ( पचलाञ्छनम् ) कमल के चिह्न से संयुक्त ( पद्मप्रभजनं ) छठवें श्री पद्मप्रभु भगवान को (बन्दे ) नमस्कार करता हूँ ।

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