Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१. श्री धवलादि सिद्धान्तोंके प्रकाशमें आनेका इतिहास
सुना जाता है कि श्री धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंको प्रकाशमें लाने और उनका उत्तरभारतमें पठनपाठनद्वारा प्रचार करने का विचार पंडित टोडरमलजी के समयमें जयपुर और अजमेरकी ओरसे प्रारंभ हुआ था। किंतु कोई भी महान् कार्य सुसंपादित होनेके लिये किसी महान् आत्माकी वाट जोहता रहता है । बम्बईके दानवीर, परमोपकारी स्व. सेठ माणिकचंदजी जे. पी. का नाम किसने न सुना होगा ? आजसे छप्पन वर्ष पहले वि. सं. १९४० ( सन् १८८३ ई.) की बात है । सेठजी संघ लेकर मूडविद्रीकी यात्राको गये थे । वहां उन्होंने रत्नमयी प्रतिमाओं और धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतियोंके दर्शन किये। सेठजीका ध्यान जितना उन बहुमूल्य प्रतिमाओंकी ओर गया, उससे कहीं अधिक उन प्रतियोंकी हुआ । उनकी सूक्ष्म धर्मरक्षक दृष्टिसे यह बात छुपी नहीं रही कि उन प्रतियोंके ताड़पत्र जीर्ण हो रहे हैं। उन्होंने उस समय के भट्टारकजी तथा वहांके पंचोंका ध्यान भी उस ओर दिलाया और इस बात की पूछताछ की कि क्या कोई उन ग्रंथोंको पढ़ समझ भी सकता है या नहीं ? पंचोंने उत्तर दिया ' हम लोग तो इनका दर्शन पूजन करके ही अपने जन्मको सफल मानतें हैं। हां, जैनविद्री ( श्रवणबेलगुल ) में ब्रह्मसूरि शास्त्री हैं, वे इनको पढ़ना जानते हैं ' । यह सुनकर सेठजी गंभीर विचार में पड़ गये । उस समय इससे अधिक कुछ न कर सके, किंतु उनके मनमें सिद्धान्त ग्रंथोंके उद्धारकी चिन्ता स्थान कर गई ।
ओर आकर्षित
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यात्रा से लौटकर सेठजीने अपने परम सहयोगी मित्र, सोलापुर निवासी, श्री सेठ हीराचन्द नेमचन्दजी को पत्र लिखा और उसमें श्री धवलादि ग्रंथोंके उद्धारकी चिन्ता प्रगट की, तथा स्वयं भी जाकर उक्त ग्रंथोंके दर्शन करने और फिर उद्धारके उपाय सोचनेकी प्रेरणा की। सेठ माणिकचंदजीकी इस इच्छाको मान देकर सेठ हीराचंदजीने दूसरे ही वर्ष, अर्थात् वि. सं. १९४१ (सन् १८८४ में स्वयं मूडविकी यात्रा की। वे अपने साथ श्रवणबेलगुलके पण्डित ब्रह्मसूरि शास्त्रीको भी ले गये । ब्रह्मसूरिजीने उन्हें तथा उपस्थित सज्जनोंको श्री धवल सिद्धान्तका मंगलाचरण पढ़कर सुनाया, जिसे सुनकर वे सब अतिप्रसन्न हुए । सेठ हीराचंदजीके मनमें सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतिलिपि करानेकी भावना दृढ़ हो गई और उन्होंने ब्रह्मसूरि शास्त्री से प्रतिलिपिका कार्य अपने हाथ में लेनेका आग्रह किया । वहांसे लौटकर सेठ हीराचंदजी बम्बई आये और सेठ माणिकचंदजी से मिलकर उन्होंने ग्रंथोंकी प्रतिलिपि कराने का विचार पक्का किया । किन्तु उनके
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