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लाटोसंहिता अन्नं मुद्गादि शुण्ठ्यादि भेषजं शर्करादि वा । खाद्यं स्वाधं तु भोगार्थ ताम्बूलादि यथागमात् ॥१६ पेयं दुग्धादि लेपस्तु तैलाभ्यङ्गादि कर्म यत् । चतुर्विधमिदं यावदाहार इति संजितः ॥१७ अथाहारकृते द्रव्यं शुद्धशोधितमाहरेत् । अन्यथामिषदोषः स्यात्तदनेकत्र साधितात् ॥१८ विद्धं त्रसाश्रितं यावर्जयेत्तदभक्ष्यवत् । शतशः शोधितं चापि सावधानदंगादिभिः ॥१९ सन्दिग्धं च यदन्नादि श्रितं वा नाश्रितं त्रसैः । मनःशुद्धिप्रसिद्धयर्थं श्रावकः कापि नाहरेत् ॥२० अविद्धमपि निर्दोष योग्यं चानाश्रितं त्रसै । आचरेच्छावकः सम्यग्दृष्टं नादृष्टमीक्षणैः ॥२१ ननु शुद्धं यदन्नादि कृतं शोधनयानया। मैवं प्रमाददोषत्वात्कल्मषस्यास्त्रवो भवेत् ॥२२ गालितं दृढवस्त्रेण सपिस्तैलं पयो द्रवम् । तोयं जिनागमाम्नायादाहरेन्स न चान्यथा ॥२३ अन्यथा दोष एव स्यान्मांसातीचारसंज्ञकः । अस्ति तत्र प्रसादीनां मृतस्याङ्गस्य शेषता ॥२४ गया है और जो सूत्र आगे कहे जायेंगे उनमें कभी संशय नहीं करना चाहिए ॥१५॥ मूंग, मोठ, चना, गेहुँ, जौ, आदि अन्न कहलाता है। सोंठ, मिरच, पीपल आदि औषधियां कहलाती हैं। मिश्री, बूरा, लड्ड, पेड़ा, बरफी आदि खाद्य पदार्थ कहलाते हैं। भोगोंके लिए आगमानुकूल ताम्बूल आदि पदार्थ स्वाद्य कहलाते हैं। दूध, पानी आदि पदार्थ पेय कहे जाते हैं और तेल मर्दन करना, उबटन लगाना आदि लेप कहे जाते हैं। ये सब पदार्थ चार प्रकारके आहारके नामसे प्रसिद्ध हैं ॥१६-१७।। इनको आहाररूपमें ग्रहण करनेके लिये शुद्ध पदार्थों को ग्रहण करना चाहिए, अशुद्ध पदार्थ कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। तथा जो शुद्ध पदार्थ भी ग्रहण किये जायें वे भी शोधकर ग्रहण करने चाहिए। यदि वे पदार्थ विना शोधे हुए ग्रहण किये जायेंगे तो उनके भक्षण करनेमें मांस खानेका दोष लगेगा क्योंकि इन खाने-पीनेके पदार्थों में प्रायः त्रस जीवोंके रहनेकी या आ जानेको सम्भावना रहती है। यदि विना शोधे हुए पदार्थ खाये जायेंगे तो उनमें आये हुए वा उनमें रहनेवाले वा उत्पन्न होनेवाले जीवोंके मारे जानेका पाप लगेगा और विना शोधे पदार्थों के साथ वे जीव भी भक्षणमें आ जायेंगे इसलिए उनके मांस खानेका भी महापाप लगेगा। इसलिए खानेके समस्त पदार्थों को देख-शोधकर ही ग्रहण करना चाहिए। खानेके पदार्थोंको विना शोधे ग्रहण करना मांस त्यागका दूसरा अतिचार है ।।१८।। घुने हुए व बींधे हुए अन्नमें भी अनेक त्रस जीव होते हैं। यदि सावधान होकर नेत्रोंके द्वारा सैकड़ों बार देखा व शोधा जाय तो भी घुने हुए अन्नमें से सब त्रस जीवोंका निकल जाना असम्भव है इसलिए सावधानीके साथ सैकड़ों बार शोधा
भी घुना या बाधा अन्न अभक्ष्यके समान त्याग कर देना चाहिए ॥१९|| जिन अन्न आदि दि पदार्थोंमें त्रस जीवोंके रहनेका सन्देह हो और इसमें त्रस जीव हैं या नहीं हैं। इस बातका सन्देह बना ही रहे तो भी श्रावकको मन शुद्ध रखनेके लिए ऐसे पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए ॥२०॥ जो अन्न आदि पदार्थ धुने हुए नहीं हैं, जिनमें कोई किसी प्रकारका दोष नहीं है और जो त्रस जीवोंसे सर्वथा रहित हैं ऐसे पदार्थ नेत्रोंसे अच्छी तरह देख-शोधकर खाने आदिके काममें लेने चाहिए. विना अच्छी तरह देखे-शोधे योग्य निर्दोष पदार्थ भी काममें नहीं लेने चाहिये ॥२१॥ शंका-जो अन्नादिक पदार्थ ऊपर लिखी विधिसे अच्छी तरह शोधकर शुद्ध कर लिये गये हैं उनके ग्रहण करने में प्रमादरूप दोषोंसे उत्पन्न हए पापोंका आस्रव कभी नहीं हो सकेगा ॥२२॥ घी, तेल, दूध, पानी आदि पतले पदार्थोंको जैनशास्त्रोंमें कही हुई विधिसे मजबूत गाढ़े वस्त्रमें छानकर ही खानेके काममें लाना चाहिए, पतले पदार्थोंको विना छाने कभी काम में नहीं लाना चाहिए ।। ३।। इसका भी कारण यह है कि विना छने घी तेल आदि पदार्थों में त्रस जीवोंके मरे
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