Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
। लगता है । न्यायपूर्वक कमाया हुआ धन उन्हीं विद्यालयोंमें वा
स्वाध्यायशालाओंमें लगता है जिनमे कि धार्मिक ग्रंथ ही पढाये जाते हैं वा धार्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय किया जाता है । ऐसे धार्मिक विद्यालयोंमें घन लगाना पुण्यका कार्य समझा जाता है वर्तमान कालमें हार्मके नामपर कितने ही पुस्तकालय खुल गये परंतु उनमें अधिकतर पश्चिमी सभ्यताका उपदेश देनेवाले जासूसी उपन्यास रहते हैं, अथवा धार्मिक संस्कारोंका घात करनेवाले समाचारपत्र पढ़े जाते हैं । परंतु ऐसे पुस्तकालयोंसे धर्मको कुछ उति नहीं होती । इस लिए ऐसे पुस्तकालयोंमें धन देना भी पुण्यका कार्य नहीं है। जिन कामोंसे भगवान जिनेंद्रदेवकी आज्ञाका प्रचार हो वा जिन ग्रंथोंके पढनेसे विषय कषायोंका त्याग हो ऐसे कामोंमें वा ऐसे ग्रंथ पढानेवाले विद्यालय वा सरस्वती भवनोंमें धन देना पुण्य कार्य गिना जाता है । किसी भी कार्य में धन देते समय धर्मात्मा लोग धर्म की वृद्धिका ध्यान रखते हैं । देखो तीर्थकर परमदेवसे अनेक भव्य जीवोंका कल्याण होता है, इसलिए मुनि अवस्था धारण करनेवालो को जो थोडासा आहार दिया जाता है उसका फल तत्काल रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्यवर्षा है तथा परम्पराफल मोक्षको प्राप्ति है। इसलिए जिन-जिन स्थानोंसे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति हो, जिन जिन श्रावकोंसे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति वा वृद्धि हो अथवा जिन जिन कार्योंसे मोक्षमार्गकी वृद्धि हो ऐसे कार्योंमें धन देना प्रत्येक श्रावकका कर्तव्य है । श्रावक लोग इंद्रियोके विषयोंको तो सर्वथा हेय समझते हैं। इसलिए वे लोग अपना धान ऐसे हेय कार्योंमें कभी नहीं लगाते ।
प्रश्न- केवलं कुक्षिहेतोर्यः पचत्यन्नं स कीदृश: ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जो गृहस्थ केवल पेट भरनेके लिए भोजन बनाता है वह कैसा है ? उत्तर - तपो जपध्यानदयाग्विताय,
स्वानन्दतृप्ताय निजाश्रिताय । बत्वा यथायोग्यपदाश्रिताय, पात्राय दानं नवधापि भक्त्या ॥ ४४ ॥