Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
धर्मात्मा पुरुष इन्द्रियोंको पुष्ट करने के लिए अथवा किसी व्यसनको वृद्धिकरने के लिए धनका मंचय कभी नहीं करता :
भावार्थ- विना धनके गृहान्य चल नहीं सकता : मार्ग भी नहीं चल सकता । यह ठीक है कि मोक्षका साक्षात् साधन निग्रंथ वीतराग अवस्था है परन्तु उस निग्रंथ वीतराग अवस्थाका टिका रहना गृहस्थधर्मके आधीन है और गृहस्थधर्म धन के आधीन है । यही समझकर धर्मात्मा गृहस्थ न्यायपूर्वक धन कमाते हैं अन्यायपूर्वक एक पैसा भी घरमें नहीं आने देते । इसका भी कारण यह है कि अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन धर्मकार्य में कभी नहीं लग सकता। वह तो अधर्म और अन्याय कार्योंमें ही लगता है और अन्त में घरको लेकर नष्ट हो जाता है । न्यायपूर्वक कमाया हुआ धन धर्मकार्य में लगता है और वह धर्मकी वृद्धि करता हुआ स्वयं वृद्धिको प्राप्त होता रहता है। इसलिए धर्मात्मा पुरुष सदाकाल न्यायपूर्वक ही धनका संचय करते हैं । बहुतसे लोगोंको पड़ा हुआ धन मिल जाता है अथवा अन्य किसी अन्याय मार्गसे आ जाता है तथा वह लेनेवाला यह समझ कर ले लेता है कि इस धनको किसी धर्मकाममें लगा देंगे । परंतु ऐमा अन्यायका आया हुआ धन धर्मकार्यमें कभी नहीं लगाना चाहिए । अन्यायका आया हुआ धन धर्मकार्य में लगानेसे उस धर्मायतनको भी नष्ट कर देता है। इसलिए ऐसे धनको ग्रहण न करना ही सबसे अच्छा है। न्यायसे कमाया हुआ धन धर्म के प्रचारमें लगाना चाहिए । गा बजाकर वा ड्रामा आदि दिखाकर लोगोंको प्रसन्न कर लेना और फिर उनसे खूब धन ऐंठ लेना धर्मका प्रचार नहीं कहलाता । इसी प्रकार धर्मका घात करनेवाली विद्याकी शिक्षा देनेवाले विद्यालय धामिक विद्यालय नहीं कहलाते हैं । अथवा जैन ग्रंथोंको छोडकर अन्य धर्मके ग्रंथ पढानेवाले विद्यालय भी धार्मिक विद्यालय नहीं कहलाते । वर्तमान कालमें जो बहुतसे विद्वान् धर्मका धात करनेवाले व्याख्यान देते फिरते हैं बा धार्मिक संस्कारोंको नष्ट करनेका उपदेश व्याख्यान देते फिरते हैं वा ऐसी पुस्तकों वा समाचार पत्र लिखते हैं वे सव ऐसे ही विद्यालयोंके फल हैं । इसलिए ऐसे विद्यालयोंमें धन देना दान नहीं कहलाता किंतु कुदान कहलाता है तथा यह भी निश्चित ही समझना चाहिए कि अन्यायसे आया हुआ धन ही ऐसे विद्यालयोंमें