Book Title: Sanshay Timir Pradip
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Swantroday Karyalay

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Page 10
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। मेरा वक्तव्य. पाठक ! पुस्तक के लिखने से पहले कुछ अपनी कथा भी कह डालूं जिससे आप लोगों को पुस्तक के बनाने का कारण मालूम हो जावे। बात यह है कि पक्षपात में पड़ रहे जे नर मति के हीन । ज्ञानवन्त निष्पक्ष गहि करे कर्म को छीन । यह प्राचीन नीति है। इसी का अनुकरण जिन्होंने किया है वे लोक में पूज्य दृष्टि से देखे जाने लगे हैं। परन्तु आज वह समय नहीं रहा । इस समय में तो जिसने इस नीति का जरा सा भी भाग पकड़ा कि वह रसातल में ढकेला गया। कुछ पुराने इतिहास के ऊपर दृष्टि के लगाने से इस विषय के सम्बन्ध म महाराज विभीषण, विद्यानन्द स्वामी आदि महात्माओं के अनेक उदाहरण ऐसे मिलेंगे कि जिन्होंने खोटे काम के करने से अपने सहोदर तक को छोड़ दिया। जिन्होंने अपने हित के लिये अपने कुल तक को तिलाञ्जली दे दी। आज उन्हें कोई बुरा बतावे तो उनकी अत्यन्त मूर्खता कहनी चाहिये। ऊपर की नीति काभी यही आशय है कि चाहे हमारा जन्म कहीं भी हुआ हो, हमारा धर्म कुछ भी क्यों न हो यदि वह प्राचीन लोगों के अनुसार आत्महित का साधक न हो तो उसे छोड़ देना चाहिये । बुरी बात के छोड़ने में कोई हर्ज नहीं कहा जा सकता। For Private And Personal Use Only

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