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श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री सिद्धसेनदिवाकर-अभयदेवसूरीश्वराभ्यां नमः श्रीमद् विजय प्रेम-भुवनभानु-जयघोषसूरीश्वर-सद्गुरुभ्यो नमः
।। सुअदेवया भगवई मम मइतिमिरं पणासेउ ।। सन्मति-तर्कप्रकरणम
तत्त्वबोधविधायिनी व्याख्या प्रथमकाण्डे तृतीयखण्डः
(पर्यायास्तिक-ऋजुसूत्रादिनयविवरणम्) (व्याख्या-अवतरणिका) विशेषप्रस्तारस्य पर्यायनयो मूलव्याकरणी, शब्दादयश्च शेषाः पर्यायनयभेदाः इति प्रागुक्तम् तत्समर्थनार्थम्
मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उज्जुसुयवयणविच्छेदो।
तस्स उ सद्दाईआ साह-पसाहा सुहुमभेया।।५।। इति गाथासूत्रम् । अस्य तात्पर्यार्थः – पर्यायनयस्य प्रकृतिराद्या ऋजुसूत्रः स त्वशुद्धा, शब्दः शुद्धा, शुद्धतरा समभिरूढः, अत्यन्तत: शुद्धा त्वेवंभूतः इति । ___ अवयवार्थस्तु- मूलम् = आदि: ने(णि)मेणं = आधारः पर्यायो = विशेषः तस्य नयः = उपपत्तिबलात् 15 परिच्छेदः तस्य, ऋजु = वर्तमानसमयं वस्तु स्वरूपावस्थितत्वात्, तदेव सूत्रयति = परिच्छिनत्ति नातीतानागतम्
[हिन्दी विवेचन] श्री सन्मति तर्कप्रकरण के द्वितीय खण्ड में पहले तृतीय गाथा (पृष्ठ २६५) में कहा था - (जैसे सामान्यप्रस्तार का मूलतः प्रभाषक द्रव्यास्तिक नय है वेसे) विशेष प्रस्तार का मूल प्रभाषक पर्यायास्तिक नय है। शेष शब्दादि तीन तो पर्यायनय के प्रकार हैं। इसी तथ्य का समर्थन करते हुए मूलग्रन्थकार श्री 20 सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी प्रथम गाथा सूत्र में कहते हैं -
गाथार्थ :- पर्यायनय का मूल बीज ऋजुसूत्र वचन की सीमा (= अवधारण) है। उस के शाखा-प्रशाखातुल्य सूक्ष्म (अवान्तर) भेद तो शब्दादिक हैं ।।५।।
व्याख्यार्थ :- मूल ग्रन्थ के व्याख्याकार महर्षि श्री अभयदेवसूरिजी तात्पर्यार्थ में कहते हैं - पर्यायनय की आद्य प्रकृति (यानी प्रकार) ऋजुसूत्र नय है, किन्तु वह अशुद्ध है। शुद्ध प्रकृतिरूप तो शब्दनय है। 25 समभिरूढ नय तो अधिक शुद्ध है। एवंभूत नय की प्रकृति तो अत्यन्त शुद्ध मानी गयी है। (पर्यायनय स्कन्ध है, ऋजुसूत्र मूलशाखा है, 'शब्द' मूल शाखा की उपशाखा है, उस की प्रशाखा है समभिरूढ, और एवंभूत उसकी चरम शाखा है।
[पंचमगाथा का अवयवार्थ ] गाथा सूत्र के एक एक शब्द का अर्थ :- मूल = आदि यानी बुनीयादी अथवा प्रारम्भिक । निमेणं 30 = आधार यानी नींव । पर्याय = विशेष यानी व्यावृत्तिहेतु । उस से संबंध रखनेवाला जो नय = युक्तिबलप्रयुक्त
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